ज्योतिष के अनुसार चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक का ग्रह है. इसे ग्रहों में माता का दर्जा दिया गया है. माता के स्थान को पाने से ही इसके प्रभाव को समझा जा सकता है. विश्व में सभी पंचांगों की रचना सूर्य और चंद्रमा की गति गणना से की जाती है. इसमें भारतीय वैदिक ज्योतिष में गणना चंद्रमा से की जाती है. यह अत्यंत सटीक और प्रभावी पद्धति है. इसके आधार पर ही सभी योगायोग निर्धारित होते हैं.
चंद्रमा के महत्व के कारण ही पाणिनी इस तप के बारे में स्पष्ट किया है. शास्त्रों मंे कहा गया है कि यह व्रत सभी पापो ंको नाश करने वाला है. इससे हर पाप का प्रायश्चित संभव है. चंद्रायण व्रत को शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ किया जाता है. इस एक ग्रास अर्थात् एक कौर भोजन लिया जाता है. द्वितीया को दो ग्रास. तृतीया को तीन ग्रास भोजन ग्रहण किया जाता है.
इस प्रकार पूर्णिमा को पंद्रह कौर भोजन ग्रहण किया जाता है. इसके बाद कृष्ण पक्ष की तिथि के घटते क्रम में भोजन के कौर घटने लगते हैं. कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी को एक ग्रास ग्रहण किया जाता है. अमावस्या को निराहार उपवास रहकर व्रत पूर्ण किया जाता है. इस प्रकार यह व्रत चंद्रमा की कलाओं से जुड़कर पूरे एक माह में पूर्ण होता है. इसी कारण इसे चंद्रायण व्रत कहते हैं.
चंद्रायण व्रत में बाद में भोजन के कौर की व्यवस्थ को एक मुष्टि भोजन से जोड़कर भी किया जाने लगा. हालांकि मूल विधान कौर से ही संबद्ध है. चंद्रायण व्रत से साधक के सभी पाप कट जाते हैं. मनोबल और आत्मबल बढ़ता है. घोर विपत्ति और दोष परिहार में यह व्रत किया जाता है.
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