सरकार कैशलेस लेनदान को बढ़ाने के लिए प्रयासरत है। इसके लिए कई सहूलियतें और सुविधाएं दी जा रही हैं। बुनियादी सुविधाएं तैयार की जा रही हैं। लेकिन जानकर आश्चर्य होता है कि आज भी हम 98 फीसद लेनदेन नकद में करते हैं। नकदी पर इतना आश्रित होना अर्थव्यवस्था के साथ खुद के लिए भी नुकसानदेय साबित होता है। एक अध्ययन के मुताबिक शीर्ष कैशलेस देशों में सिंगापुर 61 फीसद के साथ अव्वल है। महज 2 फीसद कैशलेस लेनदेन करने के साथ भारत निचले पायदान पर मौजूद है।
वित्त मंत्रालय का नाम आते ही सीधे-सीधे खजाने की सेहत, राजकोषीय संतुलन, जीडीपी जैसे भारी भरकम शब्द ही दिमाग में कौंधते हैं जिससे भारत जैसे देश की लगभग अस्सी फीसद आबादी अनजान ही होती है। यह बड़ी आबादी सिर्फ यह महसूस करती है कि तकनीकी उलझनों से परे अर्थतंत्र उनकी जिंदगी में बदलाव लाने में सफल हुआ या नहीं।
यही वे मुद्दे हैं जिस पर सरकार से सवाल पूछे जा रहे हैं। लेकिन इससे परे यह कहने में किसी को भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि पिछले चार साल में वित्त मंत्रालय का ध्यान अर्थव्यवस्था को संगठित व साफ सुथरी बनाने और तरक्की से वंचित लोगों को विकास की मुख्यधारा में लाने पर रहा। जीएसटी हो या नोटबंदी जैसा साहसिक सुधार, हर मौके पर सरकार की सोच और कार्यशैली में इसकी झलक मिली। प्रधानमंत्री जन धन योजना, अटल पेंशन योजना और मुद्रा जैसी योजनाओं को रिकार्ड समय में धरातल पर उतारकर सरकार ने हाशिए पर खड़े समाज के एक बड़े वर्ग को अर्थतंत्र से जोड़ने की प्रतिबद्धता भी दिखायी।