वन-भादों प्रकृति के उल्लास के महीने हैं। जंगल हरियाली से लकदक हो गए हैं। धरती के गर्भ से जगह-जगह जलस्नोत फूट चुके हैं। गाड-गदेरों, नदियों और झरनों का कोलाहल वातावरण में संगीत घोल रहा है। इस अनुपम छटा को देख भला कौन होगा, जो प्रकृति के इस सृजनकाल से रू-ब-रू नहीं होना चाहेगा।
लेकिन, इस मनोहारी परिदृश्य के बीच विषम परिस्थितियों वाले पहाड़ में सावन-भादों का दूसरा पहलू भी है। पहाड़ियों ने कोहरे की सफेद चादर ओढ़ी हुई है। यदा-कदा आसमान खुलने पर कोहरे के आगोश से झांकती पहाड़ियां न केवल मन की अकुलाहट (व्याकुलता) बढ़ा रही हैं, बल्कि इस अंधियारे मौसम में लोग घरों से बाहर तक नहीं निकल पा रहे। ऐसे में खुद (याद) तो लगेगी ही। इसीलिए पहाड़ में सावन-भादों को खुदेड़ महीना कहा गया है। इसकी अभिव्यक्ति यहां लोक गीतों में हुई है।
यह भी सच है कि सावन की इन्हीं फुहारों का पहाड़वासियों को हमेशा बेसब्री से इंतजार रहता है। इसकी अभिव्यक्ति नेगी अपने गीत में इस तरह करते हैं, ‘बरखा हे बरखा, तीस जिकुड़ि की बुझै जा, सुलगुदु बदन रूङौ जा, झुणमुण झुणमुण कैकि ऐजा (बारिश हे बारिश, मेरे हृदय की प्यास बुझा जा, मेरे सुलगते तन-मन को भिगो जा, प्रकृति में संगीत बिखेरते हुए आ जा)। पहाड़ में खेती बारिश पर ही निर्भर है, इसलिए जब समय से बारिश नहीं होती तो पहाड़वासियों के कंठ से गीतों के रूप में यह पीड़ा छलक पड़ती है।
लोकगीतों में छलकती है ‘खुद’
पर्वतीय समाज में बिछोह ज्यादा है। पहले अभाव भी काफी अधिक था। बावजूद इसके आज भी पहाड़ के लोग एक-दूसरे के प्रति अगाध स्नेह रखते हैं। ऐसे में समय, स्थान और वातावरण के चलते खुद की व्युत्पत्ति होती है। सावन-भादों में जब थोड़ा-सा अभाव होता है तो एक-दूसरे के प्रति स्नेह ‘खुद’ (नराई) के रूप में सामने आ जाता है। यही वजह है कि यह खुद लोकगीतों में छलक पड़ी। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का गाया ऐसा ही एक गीत है, जिसमें वह बड़े चुटीले अंदाज में बोडी-ब्वाडा (ताई-ताऊ) की परेशानियों को माध्यम बनाकर पहाड़वासियों की दुश्वारियों को बयां करते हैं। देखिए, ‘गरा-रा-रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे, सरा-रा-रा डांड्यूं में कन कुयेड़ि छैगे।’ (बारिश की झड़ी लग गई है और पहाड़ियां कोहरे के आगोश में छिप गई हैं)।
पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा
एक अन्य गीत में नेगी उस नव विवाहिता के मन की थाह ले रहे हैं, जो अपने मायके के उल्लास एवं उमंगभरे दिनों को याद करते हुए उनकी याद में घुली जा रही है। तब वह कहती है, ‘सौणा का मैना ब्वे कनु कै रैणा, कुयेड़ी लौंकाली, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालि’ (मां! सावन के महीने में मैं कैसे रहूं। चारों दिशाएं कोहरे के आगोश में हैं। अंधेरी रात है और बारिश की झड़ी लगी हुई है। ऐसे में मुझे लगातार तेरी याद आ रही है)। नेगी के गीतों में पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा कुछ इस तरह भी अभिव्यक्ति मिली है, देखिए- ‘हे बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासी’ (चातुर्मास की बारिश, वनों में कोहरा घिर रहा है तो मन में उदासी)।
इसी उदासी के बीच नवविवाहिता गा रही है, ‘भादों की अंधेरी झकझोर, न बास-न बास, पापी मोर, ग्वेरै की मुरली तू-तू बाज, भैंस्यूं की घांड्योंन डांडू गाज, तुम तैं मेरा स्वामी कनी सूझी, आंसुन चादरी मेरी रूझी।’ (भादों का अंधेरा छाया है, हे मोर तू मेरे पास न बोल, न बोल। चरवाहों की मुरली तू-तू बज रही है और भैंसों की घंटियों से पर्वत गूंज रहा है। तुम्हें मेरे पति कैसी कठोरता सूझी, आंसूओं से मेरी धोती भीग गई है)।