नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने देश में छिड़ी बहस के बीच इच्छामृत्यु की मांग पर शर्तों के साथ मुहर लगाई है. इस मामले में कोर्ट ने कहा कि देश में हर किसी को सम्मान के साथ मरने का अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट ने लिविंग विल और पैसिव यूथेनेसिया (परोक्ष इच्छामृत्यु) की इजाजत देते हुए, इसके लिए गाइडलाइंस जारी की हैं ताकि जीवन के अधिकार को संरक्षित किया जा सके. हालांकि फैसला आने के बाद भी इसे लेकर लोगों के मन में एक प्रकार की दुविधा बनी हुई है.इच्छामृत्यु पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चर्चाएं शुरू, जानें कैसे लागू होगा यह कानून

कानून के जानकार इस बात को लेकर चर्चा कर रहे हैं इस कानून को लागू करने का आखिर फ्रेमवर्क क्या होना चाहिए. इस मामले में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि भारत में अडवांस मेडिकल डायरेक्टिव (लिविंग विल) को लेकर कोई लीगल फ्रेम वर्क नहीं है. सुप्रीम कोर्ट का दायित्व है कि वह अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार को संरक्षित करे. अडवांस डायरेक्टिव समय की जरूरत है और वह जीवन के पवित्र अधिकार को संरक्षित करने में सहायक होगा.

कौन अडवांस डायरेक्टिव (लिविंग विल) का निष्पादन करने में सक्षम है?

– कोई भी वयस्क जो दिमागी तौर पर ठीक हो, वह एडवांस डायरेक्टिव का निष्पादन कर सकता है. हालांकि उसके लिए ये जरूरी होगा कि वह इसके परिणाम के बारे में जागरुक हो.
– वह बिना किसी के दबाव के खुद इसका निष्पादन करेगा. उस व्यक्ति को इसकी पूरी जानकारी होनी चाहिए. इसके अलावा यह भी सुनिश्चित करना होगा कि व्यक्ति पर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं था.
– लिविंग विल में स्पष्ट रूप से लिखा होना चाहिए कि मेडिकल ट्रीटमेंट उस समय रोक दिया जाए, जब मौत निश्चित हो और सिर्फ मौत को टाला जा रहा हो.
– लिविंग विल में लिखी हर बात का अर्थ स्पष्ट होना चाहिए.
– इस दौरान एक परिवार के व्यक्ति को गार्जियन बनाना होगा, जो उस वक्त फैसला ले सके, जब एडवांस डायरेक्टिव तय करने वाला इच्छामृत्यु की तरफ जा रहा हो.
-अगर इस तरह के दो लिविंग विल लिखे जाते हैं तो जो बाद की तारीख वाली विल मान्य होगी.

कब होगा इसका इस्तेमाल?

जिस अस्पताल में मरीज का इलाज चल रह है वहां के डॉक्टर्स के संज्ञान में आने पर अडवांस डायरेक्टिव का इस्तेमाव किया जा सकेगा. संबंधित डॉक्टर सबसे पहले उस दस्तावेज को चेक करेगा और उसकी सत्यता को परखने के बाद अगर उसे लगा की मरीज की हालत अब सुधरने वाली नहीं है तो वह मरीज के गार्जियन को इस बारे में सूचित करेगा.

– मरीज के गार्जियन को यह सुनिश्चित कराना होगा कि मरीज की स्थिति खराब है और जीवन की कोई संभावना नहीं है जिसके बाद लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है.

– इसके बाद जिस अस्पताल में मरीज भर्ती है। वहां मेडिकल बोर्ड का गठन होगा और वह स्थिति का आकलन करेगा और अगर वह इस ऑपिनियन के साथ है कि लाइफ सपॉर्ट सिस्टम हटाया जाए तो वह रिपोर्ट कलेक्टर को भेजेगा।

– कलेक्टर चीफ डिस्ट्रिक्ट मेडिकल ऑफिसर की अगुवाई में मेडिकल बोर्ड का गठन करेगा और वह मरीज का परीक्षण करेगा. अगर यह मेडिकल बोर्ड भी अस्पताल के मेडिकल बोर्ड से सहमत होगा तो मामले को फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट को रेफर करेगा. उसके बाद मजिस्ट्रेट स्थिति को देखेंगे और फिर वह बोर्ड के फैसले को लागू करने की मंजूरी देंगे.