काम की व्यस्तता के बीच शीरीन ने कुछ समय समंदर किनारे गुजारने का निर्णय लिया। दोस्तों के साथ ऑरोविले घूमने की योजना बनी। सभी तैयारियां मुकम्मल थीं। तभी किन्हीं वजहों से दोस्तों को यात्रा स्थगित करनी पड़ी। मन उदास हो गया। एक ख्याल आया… क्या अकेले नहीं जा सकती? मां से पूछा तो उन्होंने हामी भरने के साथ नसीहतों का पूरा पिटारा खोल दिया। दफ्तर के सहयोगी भी पीछे नहीं रहे। वे बोले अकेले जाना क्या सुरक्षित रहेगा? जब विदेशी सैलानी तक को बख्शा नहीं जाता… उन्होंने सचेत एवं सावधान किया। एक पल के लिए शीरीन भी उलझन में पड़ गईं। वह कहती हैं, एकाकी सफर से अधिक अनजान लोग और भीड़ डरा रहे थे मुझे, लेकिन जब कदम बढ़ाया तो झिझक भी जाती रही।
बेंगलुरु से ऑरोविले की यह मेरी पहली एकल यात्रा थी। एक बिल्कुल नए शहर में तीन-चार दिनों तक सिर्फ मैं थी खुद के साथ। शुरू के कुछेक घंटों में मन भय से जकड़ा रहा। घबराहट रही दिल में, लेकिन फिर सोचा कि डरने का कोई मतलब नहीं। सावधान रहना है और नई अनुभूति हासिल करनी है। इसके बाद तो तमाम संशय यूं ही हवा हो गए, कहती हैं पेशे से लेखिका शीरीन बंसल। सोलो ट्रैवलिंग में हम स्थायी रूप से स्वतंत्र भाव में रहते हैं।
किसी पर निर्भर नहीं होते। तन-मन सभी का जश्न स्वयं के साथ मनाते हैं। इसने मेरे व्यक्तित्व को बहुत हद तक परिवर्तित किया है। स्वयं से साक्षात्कार कराया है। हर स्थिति और परिस्थिति में खुद को स्वीकार करना सिखाया है। एकल परिवार में पली-बढ़ी होने के कारण मुझे नए लोगों से घुलने-मिलने या बातें साझा करने में संकोच महसूस होता था। अब ऐसा नहीं है।
शीरीन से ही मिलते-जुलते अनुभव हैं दिल्ली की स्कूल शिक्षिका सुमन डूगर के। साल 2013 का वाक्या है। दोस्तों के साथ लद्दाख जाना था, लेकिन किन्हीं वजहों से ट्रिप स्थगित हो गई तो अकेले ही बैग उठाकर निकल पड़ीं मनाली के लिए। मुझे कुछ अंदाजा नहीं था कि रास्ते में कैसे लोग मिलेंगे, कहां ठहरूंगी आदि-आदि। संयोग
वश बस में मिस्र की एक सैलानी मिल गई, जिसकी मंजिल भी लद्दाख थी। इसके बाद तो पहाड़ों के सरल जीवन और सहज बाशिंदों ने 20-25 दिनों की ट्रिप को कई मायनों में यादगार बना दिया। अब तक लद्दाख, लाहौल-स्पीति, दक्षिण भारत सहित दर्जनों एकल ट्रिप कर चुकीं सुमन बताती हैं कि इन यात्राओं ने उन्हें धैर्य की
कला सिखायी है। एक स्थायित्व दिया है जीवन में। मन जल्दी विचलित नहीं होता। यही नहीं, जीवनसाथी से मुलाकात भी इन्हीं यात्राओं में हुई उनकी।
संशय में रहना इंसानी फितरत है, लेकिन जब आप अकेले होते हैं तो विपरीत परिस्थितियों का सामना करने का हौसला आ ही जाता है। दक्षिण भारतीय राज्यों में अकेली लड़की कम ही घूमती दिखाई देती है, लेकिन मैंने अकेले लोकल बस में सैर की है। लोग हैरान थे, कहती हैं दिल्ली की चित्रकार एवं फोटोग्राफर निशात रहमान।
निशात ने दक्षिण और उत्तर भारत के अलावा पश्चिम के कई प्रदेशों की एकल यात्राएं की हैं। डेस्टिनेशन का चुनाव करने से पहले वह पूरा रिसर्च करती हैं। वह कहती हैं, मुझे सांस्कृतिक स्थल, वहां की विरासत, जीवनशैली आकर्षित करती है। स्थानीय लोगों की जुबानी जो जानकारियां मिलती हैं, वहां गूगल भी विफल हो जाता है। सोलो ट्रैवलिंग ने मुझे जवाबदेह बनाया है। यह सिखाया है कि आप स्वयं में संपूर्ण हैं। हर काम कर सकते हैं।
अजनबी शहर में घर का अहसास संजो सकते हैं। इसने मेरे नजरिये को व्यापक बनाने, अपनी क्षमता पहचानने का अवसर दिया है। मेरी सक्रियता बढ़ गई है। अब एक स्वत्रंता का आभास होता है।
एकल सफर के अनुभव अच्छे या कड़वे हो सकते हैं। सुमन को भी हुए, लेकिन सबक उनसे ही मिला। वह कहती हैं, हमें महज अपने अंतज्र्ञान पर विश्वास रखने और एक सुरक्षित ठौर तलाशने की जरूरत होती है। मुझे पहाड़ों से लगाव है। ऐसे स्थानों को प्राथमिकता देती हूं जिनका सीधा संपर्क मुख्य शहरों से हो, लेकिन वहां भीड़ नहीं,
शांति हो। इसके अलावा, वह अपने गंतव्य पर सुबह के समय पहुंचना पसंद करती हैं, ताकि नई जगह में गैर-जरूरी दिक्कतों से बच सकें। मैं स्थानीय संस्कृति और वहां के पहनावे पर विशेष ध्यान रखती हूं। हमें कभी अपनी भारतीयता का त्याग नहीं करना चाहिए। अवांछित तत्वों से वही हमारी रक्षा करता है। वह आगे बताती हैं, एक बार लैंसडाउन से लौटते हुए मेरी बस छूट गई। आसपास कुछ लड़के मंडराने लगे। अनायास ही खौफ हो गया। लेकिन मैंने संयम नहीं खोया। दरअसल, अकेला देख वे मेरी मदद करना चाहते थे और आखिरकार उनके सहयोग से ही मुझे बस मिल सकी।
कुछ वर्ष पूर्व तक भारत में महिलाओं द्वारा अकेले किसी शहर, कस्बे, पहाड़ या पर्यटन स्थल में फुर्सत के लम्हे बिताने का चलन, कल्पना से परे था। अकस्मात ही लोगों की निगाहें संदेह और सवालों से भर जाती थीं। परिवार से मंजूरी मिलना असंभव सा था, लेकिन अब वृहद समाज में इसकी स्वीकार्यता देखी जा रही है। शीरीन कहती हैं कि बस या ट्रेन में एकल सफर करते समय साथी यात्री सहयोग देने के लिए तत्पर रहते हैं। महिलाओं के लिए विशेष ट्रिप्स की व्यवस्था करने वाली वाओ क्लब (वूमन ऑन वांडरलस्ट) की फाउंडर एवं ट्रैवल राइटर सुमित्रा सेनापति कहती हैं, दस साल पहले महिलाएं पहले अपने परिजनों से यात्रा के बारे में चर्चा करती थीं। उनसे अनुमति लिए बिना कहीं जाना मुमकिन नहीं था, लेकिन अब फरियाद करने की जरूरत नहीं पड़ती। अकेले लंबे-लंबे सफर तय करने वाली निधि तिवारी इसकी एक प्रमुख वजह महिलाओं की बढ़ती आर्थिक आत्मनिर्भरता को मानती हैं, जिससे स्त्रियां खुद के लिए सोचने के अलावा स्वेच्छा से खर्च करने लगी हैं।
मैंने 16 वर्ष की उम्र में पहली बार पश्चिमी घाट स्थित कुमार पहाड़ ट्रेक किया था, वह भी अकेले। इसके बाद सरस्वती घाटी, लद्दाख, लाहौल-स्पीति समेत कई ट्रेक किए। कुछेक मौकों पर डर लगा, लेकिन पशुओं से अधिक इंसानों से। इसमें शक नहीं कि पहाड़ों ने स्वयं को सिद्ध करने की हिम्मत दी है मुझे। मैं खतरे को पहले से भांप सकती हूं। वीरान स्थानों के ढाबों पर न रुकने से लेकर पहनावे तक में एहतियात रखती हूं। इस तरह
अकेले गांव-शहर की गलियों, कस्बों से परिचय, उनसे संवाद स्थापित करते हुए जो आत्मसात किया है, उसे शब्दों में समेटना मुश्किल है। एक आंतरिक शांति मिली है यात्राओं से। बाकी महिलाओं को भी प्रोत्साहित करने के लिए मैंने वूमन बियॉन्ड बाउंड्रीज नाम से एक प्लेटफॉर्म बनाया है। मेरा मानना है कि महिलाएं जब खुद के लिए समय निकालेंगी, गतिशील होंगी, तभी सही रूप में उनका सशक्तिकरण होगा।
सफर से हुई बिजनेस की शुरुआत
सुमित्रा सेनापति, फाउंडर वूमन ऑन वांडरलस्ट
जिंदगी बहुत छोटी है। फिर क्यों उन इच्छाओं को दबाना, जिनके पूरा न हो पाने पर पछतावा हो। मैंने तब अकेले दुनिया घूमी है, जब न जीपीएस होता था और न कोई स्मार्ट डिवाइस। खुद ही डेस्टिनेशन के चुनाव, ठहरने की व्यवस्था से लेकर अपनी सुरक्षा का ध्यान रखा। घंटों झरने किनारे बैठ प्रकृति को निहारा। न किसी पर निर्भरता, न कोई हड़बड़ाहट। सभी योजनाएं खुद ही बनाती और उन्हें अमल में लाती, लेकिन करीब 20 अलग-अलग देशों की यात्राओं से जो आत्मविश्वास आया, आखिरकार उसने ही मुझे वूमन ऑन वांडरलस्ट क्लब शुरू करने की प्रेरणा दी। यह उन महिलाओं को एक मंच देता है, जो अपनी नजरों से दुनिया देखना चाहती हैं। हम बजट
को ध्यान में रखते हुए ट्रिप्स प्लान करते हैं, जिसमें समान विचारधारा वाली महिलाओं को साथ में घूमने का अवसर मिलता है। ये ट्रिप्स घरेलू से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के होते हैं, जिनमें एडवेंचर, क्रूज, ट्रेक, कैंपिंग, ड्राइविंग सभी शामिल होते हैं। पहले की अपेक्षा आज की महिलाओं की आकांक्षा भी बढ़ गई है। वे स्वयं की तलाश में अकेले नए द्वीपों को खंगाल रही हैं। उनके आत्मविश्वास का स्तर कहीं ऊंचा हो गया है।
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