पश्चिमी चंपारण। दीए की टिमटिमाती लौ को तूफानों को झेलना पड़ता है। लेकिन कुछ दीए एेसे होते हैं जो तूफानों में भी जलने का हौसला नहीं छोड़ते और उसी मजबूत हौसलों की बदौलत बड़ा से बड़ा तूफान भी उन दीयों को हरा नहीं पाता और ये दीए रौशन रहते हैं और दूसरों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बनते हैं।
एेसी ही एक मां जिसने निरक्षर होते हुए भी शिक्षा से अपने बच्चों की किस्मत लिख दी लेकिन इसके लिए उसने कड़ा संघर्ष किया। यह महिला हैं जुबैदा खातून जिन्होंने निरक्षर होने के बाद भी शिक्षा के महत्व को समझा और उसके लिए लड़ती रही और आज उसने जीत हासिल की है। जुबैदा का निकाह 1982 में बगहा के रतनमाला निवासी अजहर अंसारी से हुई। जीवन खुशी-खुशी चल रहा था कि शादी के सात साल के बाद ही जुबैदा के पति अजहर चल बसे। उसके बाद अचानक जुबैदा पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। छोटे-छोटे बच्चों के खाने पीने की चिंता, परिवार की जिम्मेदारी।
लेकिन पति की मौत के बाद भी उसने हिम्मत नहीं हारी। सास-ससुर ने भी उसका साथ नहीं दिया। उसे बच्चों समेत घर से निकाल दिया। जुबैदा वहीं से कुछ दूर स्थित अपने मायके आ गईं। पिता जहूर अंसारी के मकान में बच्चों के साथ रहने लगीं। लेकिन उसने अपने पिता पर आश्रित रहने के बजाए खुद काम करने का निर्णय लिया। अशिक्षित होने की वजह से उसे कोई ढंग का काम नहीं मिला।
जुबैदा को समझ नहीं आया कि क्या करे? उसने पति की मौत के कुछ दिन बाद ही अपनी लाज-शर्म का त्यागकर बच्चोेें के भरण-पोषण के लिए दूसरों के घर चौका-बर्तन करना शुरु किया और साथ ही छोटे-छोटे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी शुरू कराई। अशिक्षा का दंश झेलने वाली जुबैदा ने पढ़ाई का महत्व समझा। जो भी पैसे मिलते उसमें से एक हिस्सा वह बच्चों की पढ़ाई के लिए निकाल देती थी। दिन-रात की कड़ी मेहनत और फिर बच्चों के साथा रात में जाग-जागकर उनकी पढ़ाई का पूरा ध्यान रखती। दो बेटे और दो बेटियों का पालन-पोषण की जिम्मेदारी ही जुबैदा की जिंदगी बन गई।
उसने चारों बच्चों का स्कूल में दाखिला कराया। जब पढ़ाई का खर्च बढ़ा तो मजदूरी करने लगी। इसके बाद चौराहे पर सब्जी बेचना शुरू किया। उसे लेकर लोग तरह-तरह की बातें करते जिससे वह घर आकर खूब रोती, लेकिन उसका दर्द समझने वाला कौन था? वह सुबह फिर नए सिरे से बच्चों के भविष्य के लिए लोगों के ताने सहने के उपाय तलाशती।
इस तरह तमाम तरह के दंश झेलते हुए उसने जीवन की आहूति देकर अपने दोनों बेटों सहित दोनों बेटियों को भी उच्च शिक्षा दिलाई। आज जुबैदा का एक बेटा विदेश में नौकरी कर रहा है तो दूसरा अपनी दुकान चलाता है। इस मां के हौसले को आज सब सलाम करते हैं। जुबैदा कहती हैं, पहले समाज के लोग ताना मारते थे। कई लोगों ने तो फिर से निकाह कर लेने की बात भी कही, लेकिन मैंने मना कर दिया। मेरे लिए मेरे बच्चे ही मेरी जिंदगी की पूंजी हैं और मैंने लोगों की बातों की परवाह किए बगैर सबकी बातें सुनती रही और जिंदगी से संघर्ष करती रही।
बाल विवाह का विरोध
एक मां की मेहनत रंग लाई। बड़ी बेटी खुशबू खातून के बाद छोटी बेटी बेबी खातून ने भी स्नातक कर मां के सपनों को पूरा किया। जुबैदा ने सौगंध खाई थी कि कम उम्र में बेटियों का निकाह नहीं करेंगी। इसलिए बालिग होने के बाद उनके हाथ पीले किए। खुशबू का निकाह वर्ष 2002 में एक किसान परिवार में हुआ। जबकि छोटी बेटी का बेतिया के एक मध्यमवर्गीय व्यवसायी परिवार में। दोनों बेटियां खुश हैं और मां उनके लिए भगवान हैं। बेटियों के ससुराल वाले भी पढ़ी-लिखी बहू पाकर खुश हैं और जुबैदा के त्याग को सलाम करते हैं।
बेटों ने समझा मां का त्याग
जुड़वा बेटों इमरान और इरफान ने भी मां के त्याग को समझा। मन से पढ़ाई की। स्नातक के बाद इमरान तकनीकी डिग्री लेकर दुबई रवाना हो गया। वहां एक कंपनी में स्टोर इंचार्ज की नौकरी करता है। इरफान बगहा में ही तीन साल से मोबाइल रिपेयरिंग, फोटो स्टेट और स्टेशनरी की दुकान चला रहा है। जुबैदा बीते 12 वर्षों से चुडि़हारी टोला स्थित विद्यालय में रसोइए का काम करती हैं। वह कहती हैं, पति की मौत के बाद हालात से समझौता करने की जगह संघर्ष का फैसला लिया। आज बच्चे लायक बन गए, यही मेरी तपस्या का सबसे बड़ा फल है।