New Delhi: स्वतंत्र भारत की पहली सरकार में कई ऐसे मंत्री थे, जो कांग्रेस के खिलाफ थे, लेकिन फिर भी उन्हें कांग्रेस में मंत्री बनाया गया । जिनमें जनसंघ के संस्थापक और नेहरु की नीतियों के कट्टर विरोधी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डॉ. भीमराव अंबेडकर भी थे।डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी—-
6 जुलाई 1901 को कलकत्ता में जन्मे डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी के पिता सर आशुतोष मुखर्जी शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। डॉ॰ मुखर्जी ने 1921 में बी०ए० पास किया । 1923 में लॉ की पढ़ाई करने के बाद वे विदेश चले गये और 1926 में इंग्लैंड से वकील बनकर स्वदेश लौटे। और अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए ही सिर्फ 33 साल की छोटी सी उम्र में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपनी मर्जी से राजनीति में प्रवेश किया। और बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी के साथ मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्तमन्त्री बने। इसी समय वे सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में शामिल भी हुए।
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40 के दशक में मुस्लिम लीग ने बंगाल में भयकर तबाही मचा रखी थी, और साम्प्रदायिक दंगों की नौबत आ रही थी। दंगों भड़काने को लोगों को ब्रिटिश सरकार उकसा रही थी। ऐसे में बंगाल में हिंदुओं को ज्यादा खतरा था, तब उन्होंने हिन्दुओं को बचाने के लिए अपनी रणनीति से बंगाल बंटवारे के मुस्लिम लीग की कोशिशों पर पानी फेर दिया। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेल में डाल दिया।
डॉ॰ मुखर्जी राष्ट्रवाद के बड़े समर्थक थे, और इसलिए वे धर्म के आधार पर बंटवारे के कट्टर विरोधी थे। उनका मानना था कि बंटवारा सिर्फ लोगों को जख्म देगा, और सांप्रदायिक दंगे ही होंगे । उनका मानना था कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है।
और यही सच भी है । लेकिन उनके विचारों को विरोधियों ने गलत तरीके से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके भी लोगों के दिलों में उनके प्रति प्यार और समर्थन बढ़ता ही गया। जब अगस्त 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर रक्त संहार हुआ तो उस समय कांग्रेस का नेतृत्व काफी डरा हुआ था। ब्रिटिश सरकार की देश बंटवारे की गुप्त योजना को कांग्रेस के नेताओं ने अपने वादों की परवाह ना करते हुए स्वीकार कर लिया। उस समय डॉ॰ मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के बंटवारे की मांग उठाकर आधा बंगाल और आधा पंजाब बचा लिया।
पंडित जवाहर लाल नेहरू के ना चाहते हुए भी गान्धी जी और सरदार पटेल के कहने पर मुखर्जी भारत के पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया।
किन्तु उनके राष्ट्रवादी छवि के चलते कई नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। इसी कारण से उन्होंने राष्ट्रीय हितों को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने मानते हुए मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बडा दल था। और इस तरह फिर अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का जन्म हुआ। जो देश में बीजेपी के नाम से चल रही पार्टी है और उनके विचारों पर चलने का दावा करती है ।
डॉ॰ मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहां का मुख्यमन्त्री तब प्रधानमन्त्री कहलाता था। भारत से कोई वास्ता नहीं था । संसद में अपने भाषण में डॉ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की।
अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराउंगा या फिर इसे पूरा करने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा। उन्होंने नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे।
आपको बता दें कि उन दिनों कश्मीर जाने के लिए परमिट की जरूरत होती थी, चूंकि मुखर्जी को परमिट नहीं दिया गया और फिर भी उन्होंने कश्मीर जाने का संकल्प लिया, इसलिए उन्हें जम्मू में ही गिरफ्तार करने का आदेश दिया गया, फिर अचानक सरकार द्वारा यह कहा गया कि मुखर्जी को कश्मीर जाने के लिए किसी परमिट की जरूरत नहीं है।
चूकिं तब भी कश्मीर एक दूसरे मुल्क की ही तरह था, जिसका कानून अलग था, जब मुखर्जी कश्मीर पहुंचे तो उन्हें नाटकीय ढंग से गिरफ्तार कर लिया गया । और गिरफ्तारी के बाद उन्हें नजरबंद कर दिया गया, ताकि दूसरे लोग उनसे ना मिल सकें ।
वो गिरफ्तारी ही मुखर्जी की मौत का कारण बनी, उन्हें कई अलग-अलग जगहों पर रखा गया, जिससे उनकी तबियत धीरे-धीरे ज्यादा खराब हो गई, ना ही उन्हें किसी तरह की कोई चिकित्सकीय सुविधा दी गई । 24 मई 1953 को नेहरु श्रीनगर दौरे पर गए, लेकिन एक भी बार मुखर्जी से मिलने नहीं गए। बहुत छोटे से कमरे में बंद होने के कारण मुखर्जी की तबियत धीरे-धीरे ज्यादा खराब हो गई । इस तरह भारत मां का एक और वीर सपूत 23 जून 1953 को रहस्यमय हालात में दुनिया से विदा हो गया ।
इसे हैरत की बात कहे या सिर्फ बदले की भावना कि देश के महान नेताओं में शुमार सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की मौत की जांच के लिए कई अलग-अलग कमेटियां बनाई गई, लेकिन देश हित में इतना अमू्ल्य योगदान देने वाले और कश्मीर को भारत में मिलाने की खातिर अपना बलिदान देने वाले नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को मौत पर कोई जांच कमेटी गठित नहीं की गई ।