जब नियम-कायदे हैं, जो सिर्फ आम आदमी पर लागू होते हैं। आप मंत्री या विधायक हैं तो जो मन में आए करते रहिए, कोई पूछने वाला नहीं। अब देखिए, पिछले दिनों एक मंत्री अपना कोरोना टेस्ट करवाकर निकल पड़े सफर पर और पहुंच गए सीधे केदारनाथ, जबकि कोविड गाइडलाइन के अनुसार कोरोना टेस्ट की रिपोर्ट आने तक आप कहीं नहीं जा सकते। पर, मंत्री हैं ना, कौन सवाल करेगा। सो, मंत्रीजी भी केदारनाथ में साध्वी उमा भारती और मुख्य पुजारी शिवशंकर लिंग से लेकर सौ से अधिक व्यक्तियों से मिले। पुनर्निर्माण कार्यों का निरीक्षण किया, सबसे चर्चा-परिचर्चा हुई वगैरह-वगैरह। शाम को वापस देहरादून लौटे तो पता चला कि कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। लेकिन, होना क्या था, सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का। सब बेफिक्र। आप चिल्लाते रहिए। देते रहिए नियम-कायदों की दुहाई। हां, अगर मंत्रीजी की जगह आम आदमी या कोई विपक्षी होता तो एफआइआर होनी तय थी।
फरमान पर फरमान
पुराना नियम निकालो और एक नया नियम बना डालो। सचमुच! हुजूर किसी के अरमानों पर पानी नहीं फिरने देते। इसलिए आज फरमान निकालते हैं और जैसे ही पता लगता है कि किसी के अरमान टूट गए, अगले ही दिन फरमान बदल डालते हैं। इसी उलट-पलट के कारण हुजूर के अनेक ‘नाम’ पड़ गए। खैर! जितने मुंह, उतनी बातें। किसी की जुबान थोड़े पकड़ी जा सकती है। क्या हुआ हुजूर जो अपनी बात से पलटी मार गए। भई पहले से कोई आजमाया नुस्खा या बने-बनाए नियम होते तो कॉपी-पेस्ट कर लेते। लेकिन, भाई लोगों सौ वर्षों में ऐसी आफत आती है, जब नियम-कायदे तय करना आफत से भी बड़ी आफत हैं। फिर नियमों को उलटने-पलटने से कोई फायदा होता हो तो बुराई भी क्या है। आखिर हैं तो यह जनता की भलाई के लिए ही। हां! यह दीगर बात है कि हुजूर के नुमाइंदे ही खुद नियमों को नहीं मान रहे।
रेफर का ‘शगल’
गर्भवती को स्वास्थ्य केंद्र लेकर पहुंचे स्वजनों को डॉक्टर साहब का एक ही जवाब होता है, ‘स्थिति गंभीर है’ और फिर उसे हायर सेंटर रेफर कर देते हैं। पर यह क्या, जिस गर्भवती की स्थिति डॉक्टर साहब गंभीर बता रहे थे, उसका तो आशा कार्यकर्ता ने फार्मेसिस्ट की मदद से एंबुलेंस में ही सामान्य प्रसव करवा दिया। …तो क्या फिर ऐसा किया जाए कि फार्मेसिस्ट और आशा कार्यकर्ता स्वास्थ्य केंद्र की जिम्मेदारी संभालें और डॉक्टर साहब एंबुलेंस की। इससे वह भी गर्भवती को सामान्य प्रसव कराना सीख जाएंगे। यह हाल है उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का। वहां बीते छह महीनों में ऐसे कई मामले आ चुके हैं, जब रेफर कर दी गई गर्भवती का रास्ते में ही सुरक्षित प्रसव कराया गया। जबकि, ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित होने पर उम्मीद थी कि गैरसैंण में व्यवस्थाएं सुधरेंगी। लेकिन, भला किसे फुर्सत है, इस बारे में सोचने की भी।
…और अंत में
प्रदेश में पर्यटन विकास को लेकर बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं। मसलन जगह-जगह रोप-वे लगेंगे, नदियों पर झील और नदियों के किनारे मरीन ड्राइव व आस्थापथ बनेंगे वगैरह-वगैरह। बहुत अच्छी बात है, ऐसा होना ही चाहिए। तब तो यह और भी जरूरी है, जब पर्यटन ही उत्तराखंड के विकास का सबसे मजबूत आधार है। लेकिन, पिछले 20 वर्षों के पन्ने पलटें तो लगता है कि ‘ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावे किताबी हैं।’ असल में हमारा पर्यटन विकास तो आज भी चारधाम की सीमाओं को नहीं लांघ पाया। चारधाम में भी हम सप्त बदरी व पंच केदार शृंखला के तीर्थों को खास अहमियत नहीं देते। जबकि, इन तीर्थों को जोड़ने वाले रूटों पर ही तमाम खूबसूरत पर्यटक स्थल उपेक्षित पड़े हैं। यह तीर्थ भी उतने ही ऐतिहासिक और पौराणिक हैं, जितने बदरी-केदार धाम। इससे भी बड़ी विडंबना देखिए कि हमने गंगोत्री-यमुनोत्री धाम को भी कभी बदरी-केदार जैसी अहमियत नहीं दी।