आजाद हिंद फौज के 2300 सैनिकों की शहादत पर पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले केंद्र सरकार श्रद्धांजलि देगी

ब्रिटिश आर्मी ने 25 सितंबर, 1945 की रात को पश्चिम बंगाल के नीलगंज इलाके में आजाद हिंद फौज के करीब 2,300 सैनिकों पर मशीनगन चलाकर जलियांवाला बाग जैसी क्रूरता को अंजाम दिया था। तत्कालीन सरकार ने इस घटना को दबाने का भरसक प्रयास किया। आजादी के बाद यहां भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर जूट एंड एलायड रिसर्च खुल गया।

इस मुद्दे को उठाने वाले सुभाष संस्था के महासचिव तमाल सान्याल का कहना है कि सेंट्रल इंस्टीट्यूट में तो किसी को अंदर घुसने की इजाजत ही नहीं थी। शहीदों को श्रद्धांजलि देने और लोगों को इस घटना के बारे में पता चले, इस मकसद से सेंट्रल इंस्टीट्यूट में कुछ माह पहले छोटा सा कार्यक्रम आयोजित करने की इजाजत मांगी थी, जिसके लिए इंस्टीट्यूट ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इस बारे में केंद्रीय गृह मंत्रालय से बात करें।

उसके बाद पीएमओ और केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र भेजकर सारे प्रकरण से अवगत कराया गया। शुक्रवार को केंद्र सरकार के कई मंत्रालयों के आला अधिकारी सेंट्रल इंस्टीट्यूट पहुंचे हैं। सूत्र बताते हैं, यह प्रबल संभावना है कि पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले प्रधानमंत्री या केंद्रीय गृह मंत्री यहां पहुंचकर सुभाष चंद्र बोस के उन सिपाहियों को श्रद्धांजलि दें, जो इतिहास में अभी तक गुमनाम हैं।

केंद्र सरकार की टीम में डॉ. पूर्बी राय भी शामिल हैं। राय ने सुभाष चंद्र बोस के जीवन को लेकर बड़े स्तर पर शोध कार्य किया है। टीम में ज्वाइंट सेक्रेटरी स्तर के कई अधिकारी बताए गए हैं। सूत्र बताते हैं कि टीम में संस्कृति मंत्रालय, विदेश और गृह मंत्रालय के अधिकारी शामिल हैं। पूरी संभावना है कि सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर जूट एंड एलायड रिसर्च को आजाद हिंद फौज के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए खोल दिया जाएगा। तमाल सान्याल का कहना है कि यह घटना इतिहास में गुमनाम होकर रह गई।

तमल सान्याल और उत्तर 24 परगना स्थित नीलगंज (बैरकपुर) में नेताजी सुभाष चंद्र मिशन के सचिव सधन बोस के मुताबिक, आजादी से पहले यहां पर साहेब बागान था। इसी परिसर में आर्मी कैंप भी स्थापित किया गया। इस कैंप में ब्रिटिश आर्मी के अफसर रहते थे। सितंबर 1945 के दौरान इस बागान में युद्धबंदी लाए गए। इन युद्धबंदियों में आजाद हिंद फौज के सिपाही थे। इन्हें दुनिया के विभिन्न हिस्सों से पकड़ कर लाया गया था।

25 सितंबर की रात ब्रिटिश आर्मी ने नरसंहार की घटना को अंजाम दे दिया। अगली सुबह देखा तो आर्मी कैंप में चारों तरफ खून बिखरा पड़ा था। सैनिकों के खून से केवल बागान ही लथपथ नहीं था, बल्कि निकटवर्ती नौआई नदी की राह भी लाल हो चुकी थी। नरसंहार के बाद ब्रिटिश आर्मी ने सैनिकों के शवों को इसी नदी में फेंक दिया था।

जब यह मामला तूल पकड़ने लगा तो ब्रिटिश आर्मी की पूर्वी कमान के मेजर जनरल 6-ओएमडी को इस हत्याकांड की जांच सौंपी गई। उन्होंने घटनास्थल का मुआयना किया, तो सच सामने आ गया। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने लिखा कि यहां हत्याकांड को अंजाम दिया गया है, मगर इतनी जल्दी शव कहां चले गए, ये सोचने वाली बात है। चूंकि अंग्रेजों ने सभी शवों को रातों-रात नदी में फेंक दिया था, इसलिए वहां कोई सबूत नहीं बचा था।

इंडियन नेशनल आर्मी के कर्नल जीएस ढिल्लन ने अपने एक पत्र में इस हत्याकांड का जिक्र करते हुए लिखा था, 25 सितंबर की उस रात 2,300 सैनिकों को मार डाला गया था। कोलकाता विश्वविद्यालय से नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर शोध कर चुके डॉ. जयंत चौधरी लिखते हैं, आजाद हिंद फौज के सैनिकों के शव ट्रकों में भरकर नदी पर लाए गए। बहुत से शव ऐसे भी रहे, जो आसपास के जंगलों में फेंक दिए गए। चूंकि यह एक नरसंहार था, इसलिए शवों की संख्या भी बहुत ज्यादा थी। ताड़ के पेड़ों पर सैनिकों के शव पड़े होने के सबूत मिले थे।

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