
एजेंसी/ पहली धारा ज्ञान की है जो ऊर्जावान वाणी बनकर शब्द की उपासना से प्राण-प्रतिष्ठित होती है। इसके श्रवण मात्र से मन, कर्म, वचन धन्य हो उठते हैं। व्यक्ति वंदनीय हो जाता है। यह देवत्व का मार्ग है जो शांति, दया, उपकार, संतोष, प्रेरणा व उत्साह का सृजनकर मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाने में सहायक होता है और बदले में सम्मान, आनंद और असली खुशी की अलौकिक सृष्टि की रचना करता है।
धारा ज्ञान की है
ज्ञान से पुण्य का उदय होता है, जबकि अज्ञान, पाप व भय को जन्म देता है। अज्ञान के अंधकार में मनुष्य का तन व मन मैला हो जाता है। वह न कुछ अच्छा सोच पाता है और न अच्छा कर ही पाता है, न स्वयं अच्छा रह पाता है, न दूसरों को ही अच्छा रख पाता है। पग-पग पर बैर, घृणा, द्वेष कुंडली मारकर उसे डसते रहते हैं। उनके विष से वह पूरे परिवेश को ही विषाक्त बनाता चला जाता है।
अज्ञानी का जीवन इस सांसारिक भवसागर में एक ऐसी नाव के समान है, जो इसे पार करने के लिए बनी तो है, लेकिन जिसकी तलहटी में अज्ञानतारूपी छोटे-छोटे अनेक छेद हैं। खेवनहार चालाकी से उसे पार तो लगाना चाहता है, लेकिन अज्ञानता के छिद्रों से जीवन महासमुद्र की तृष्णाओं, इच्छाओं का जल उसे लक्ष्य तक पहुंचने से पूर्व ही उसी भवसागर में डूबने में सहायक हो जाता है। ठीक उसी तरह अज्ञानता से भरा हुआ हमारा जीवन एक दिन हमें संसार सागर में डुबो देने की कुंजी बन जाता है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार अज्ञान से ज्ञान ढंका होता है। इसी से सब अज्ञानी प्राणी मोह को प्राप्त होते हैं। अज्ञान दुखों का विस्तार करता है। लेकिन ज्ञान ऐसी पारसमणि है, जिसके संपर्क में आकर महत्वहीन व श्रीविहीन व्यक्ति ना केवल महत्वपूर्ण हो जाता है, बल्कि श्रीयुक्त हो सबके कल्याण में भी सहायक होता है।
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