फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन होलिका दहन का पर्व मनाया जाता है। इस साल होलिका दहन का पर्व 17 मार्च को पड़ रहा है। इस दिन होलिका दहन से पूर्व होलिका माई की पूजा करने का विधान है। पूजा के समय फूल, हल्दी, बताशे, एकाक्षी नारियल, गन्ना, गेहूं की बाली आदि अर्पित करना शुभ माना जाता है। होलिका दहन मनाने के पीछे एक पौराणिक कथा है जिसे नारद पुराण से लिया गया है। इस कथा में बताया गया है कि कैसे बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। कैसे भक्त प्रहलाद हर कष्टों से छुटकारा पाकर नरसिंह भगवान का आशीर्वाद पाता है।
होलिका दहन की पौराणिक कथा
नारद पुराण के अनुसार, आदिकाल में हिरण्यकश्यप नामक एक राक्षस था। वही किसू देवी-देवता को ना मानकर खुद को ही भगवान मानाचा था। वह चाहता था कि हर कोई उनकी पूजा करें। इसी कारण उसके राज्य में हर कोई दैत्यराज हिरण्यकश्यप की ही पूजा करते थे। लेकिन राक्षस हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का सबसे बड़ा भक्त था। दैत्यराज के लिए उसका पुत्र ही सबसे बड़डा शत्रु बनता जा रहा था। क्योंकि वह सोचता था कि अगर घर का पुत्र की मेरी पूजा नहीं करेगा तो किसी दूसरे से क्या अपेक्षा रखेंगे। इसलिए वह हमेशा इसी चिंता में लगा रहता था कि आखिर वह अपने पुत्र को कैसे विष्णु की भक्ति करने से रोके। वह प्रहलाद से खुद की पूजा करने के लिए कहते थे।
लेकिन वह जरा सी भी बात नहीं सुनता था। ऐसे में हिरण्यकश्यप से त्रस्त होकर अपने पुत्र को कष्ट देने शुरू कर दिया। उसे हाथी से कुचलने, खाई से गिराने की कोशिश की लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से वह असफल रहा। प्रहलाद को लंबे समय तक काल कोठरी पर बंद करके विभिन्न तरह की यातनाएं देता रहा। थक हार के हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका से मदद की गुहार लगाई,जिसे भगवान शंकर से ऐसा वरदान मिला था जिसके अनुसार आग उसे जला नहीं सकती थी।
इसके बाद दोनों से मिलकर तय किया कि प्रहलाद को आग में जलाकर खत्म किया जाए। इसी कारण होलिका प्रहलाद को अपनी गोदी में बिठाकर आग में बैठ गई। लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से होलिका जल गई और प्रहलाद की जान बच गई। इस बात से हिरण्यकश्यप काफी दुखी हुआ। इसी कारण हर साल चैत्र मास की पूर्णिमा को अग्नि जलाकर होलिका दहन का आयोजन किया जाता है।