जिंदगी एवं मौत की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक जीवात्मा को मोक्ष नहीं प्राप्त हो जाता। बच्चे के गर्भ में होने से लेकर पैदा होने तक मां के कष्ट सहने को लेकर हम बचपन से सुनते आए हैं, मगर क्या आप जानते हैं कि मां के गर्भ में एक शिशु को भी बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं। माता के गर्भ से बाहर आने के पश्चात् जैसे ही मृत्युलोक की हवा का स्पर्श होता है, जीव पूर्व जन्म की सारी बातों को भूल जाता है तथा माया के बंधन में फंस जाता है। गरुड़ पुराण में गर्भस्थ शिशु के कष्टों को बताया गया है। यहां जानिए इसके बारे में…
गरुड़ पुराण के अनुसार, जब जीव मां के गर्भ में आता है तब वो बेहतर सूक्ष्म रूप में होता है। 10 दिनों के पश्चात् बेर के समान हो जाता है तथा उसके पश्चात् अंडे का आकार ले लेता है। तत्पश्चात, भ्रूण के मस्तिष्क का विकास आरम्भ होता है। दूसरे माह में भ्रूण की भुजा का निर्माण होता है तथा तीसरे माह में हड्डी, नाखून, त्वचा, रोम, लिंग तथा दसद्वार के छिद्र का निर्माण होता है। चौथे माह में त्वचा, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा तथा अस्थि तैयार होती है, पांचवे माह में क्षुधा और तृषा आती है तथा छठे माह में भ्रूण गर्भ के अंदर भ्रमण करने लगता है तथा मां के आहार से तेजी से विकसित होने लगता है।
वही इस वक़्त में बच्चा मां के गर्भ में मल मूत्र तथा अन्य प्रकार के सूक्ष्म जीवों के साथ रहता है तथा शयन करता है। उस वक़्त शिशु सूक्ष्म जीवों से परेशान होता है तथा बार बार बेहोश भी होता है। मां यदि तीखा, कसैला या तेज नमकदार भोजन खाती है तो शिशु की नाजुक त्वचा को उससे दिक्कत होती है। उसके पैर ऊपर तथा सिर नीचे होता है। इस स्थिति में वो अधिक हिल डुल नहीं पाता तथा निरंतर कष्ट सहता है। ऐसे में शिशु भगवान का नाम जपकर उनसे अपने पापों की माफ़ी मांगता है तथा अपने चरणों में विलीन होने की कामना करता है। मगर जैसे ही वो जन्म लेकर मृत्युलोक की हवा को स्पर्श करता है, वो सब कुछ फिर से भूल जाता है तथा माया चक्र में उलझकर रह जाता है।