खांडव वन में अग्नि भड़क उठी थी, कहानी सुनकर हंसने के साथ आएगा रोना

बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि दिल्ली प्राचीनकाल का इंद्रप्रस्थ था लेकिन इस इंद्रप्रस्थ अर्थात दिल्ली की कहानी में एक ओर जहां भयानक दर्द है तो दूसरी ओर खुशियां. जी हाँ, तो आइए आज हम आपको बताते हैं इसके पीछे की कहानी.

 

कहानी- कौरव और पांडवों के बीच जब राज्य बंटवारे को लेकर कलह चली, तो मामा शकुनि की अनुशंसा पर धृतराष्ट्र ने खांडवप्रस्थ नामक एक जंगल को देकर पांडवों को कुछ समय तक के लिए शांत कर दिया था. इस जंगल में एक महल था जो खंडहर हो चुका था. पांडवों के समक्ष अब उस जंगल को एक नगर बनाने की चुनौती थी. खंडहरनुमा महल के चारों तरफ भयानक जंगल था. यमुना नदी के किनारे एक बीहड़ वन था जिसका नाम खांडव वन था. पहले इस जंगल में एक नगर हुआ करता था, फिर वह नगर नष्ट हो गया और उसके खंडहर ही बचे थे. खंडहरों के आसपास वहां जंगल निर्मित हो गया था.

एक दिन वहां श्रीकृष्ण अर्जुन और युधिष्ठिर के साथ पहुंचे और वहां यमुना के किनारे बैठकर प्रसन्नता के साथ आनंदोत्सव महा रहे थे. तभी वहां एक ब्राह्मण उपस्थित हुआ. ब्राह्मण ने कहा कि मैं एक बहुभोजी हूं और आप संसार के श्रेष्ठ लोग हैं तो निश्चित ही आप मेरी भूख शांत करेंगे. क्या आप मुझे भिक्षा देंगे. तब अर्जुन ने कहा कि आपकी तृप्ति किस प्रकार से होती है. आज्ञा कीजिये हम उसी प्रकार का भोजन लाते हैं. तब ब्राह्मण ने वचन लेकर कहा कि मैं अग्नि हूं आप मुझे साधारण अन्य की आवश्यकता नहीं. आप मुझे वही अन्य दीजिए जो मेरे योग्य है. मैं खांडववन को जला डालना चाहता हूं. इसी से मेरी भूख शांत होगी. लेकिन इस वन में तक्षण नाग अपने परिवार के साथ सदा रहता है और इंद्र उसकी रक्षा में तत्पर रहते हैं. जब भी में इस वन को जलाने का प्रयास करता हूं तो इंद्र जल की वर्षा कर देते हैं. अग्निदेव के यह वचन सुनकर अर्जुन उन्हें आश्वासन देते हैं कि इस बार इंद्र को इस कार्य को करने से हम रोकेंगे.

भगवान श्रीकृष्‍ण और अर्जुन की अनुमति बाकर अग्निदेव वन को जलाने लगते हैं. खांडववन में अग्नि धधकने लगी और उसकी ऊंची ऊंची लपटे आकाश तक पहुंच गई.यह देखकर देवराज इंद्र का क्रोध भी सातवें आसमान पर चढ़ गया. वे अपने हाथी ऐरावत पर बैठकर वे जल वर्षा करने लगते हैं. अर्जु और श्रीकृष्ण उनकी वर्षों को असफल करने के लिए अपने अपने दिव्यास्त्र चलाते हैं. इंद्र और अर्जुन में भयंकर युद्ध होता है. वन में रह रहे सिंह, पशु, मृग, हाथी, भैंसे, सर्प और अन्य पशु-पक्षी अन्यान्य वन में भागने लगते हैं. भयानक दृष्य उपस्थित हो जाता है. उस समय इन्द्र को तक्षक की चिंता हो रही थी. लेकिन तभी आकाशवाणी होती है कि हे इंद्र तुम्हारा मित्र तक्षक कुरुक्षेत्र जाने के कारण इस भयंकर अग्निकाण्ड से बच गया है. तुम अर्जुन और श्रीकृष्ण से युद्ध में जीत नहीं सकते हो अत: तुम शांतचित्त रहो. आकाशवाणी सुनकर देवराज इंद्र क्रोध और ईर्षा छोड़कर स्वर्ग लौट गए. तभी श्रीकृष्ण ने देखा की मय नामक एक दानव तक्षक के निवास स्थान से निकल कर भाग रहा है. यह देखकर श्रीकृष्ण अपना चक्र चला देते हैं. आगे धधकती आग और पीछे चक्र. यह देखकर मय दानव भयभीत हो जाता है. तब वह वीर अर्जुन को सहायता के लिए पुकारता है. हे अर्जुन मैं तुम्हारी शरण में हूं. यह सुनकर अर्जुन उसकी सहायता के लिए दौड़ते हैं.

इस तरह मय दानव बच जाता है.खांडववन को अग्नि 15 दिन तक जलाती रही. इस अग्निकाण्ड में केवल छह प्राणी ही बच पाते हैं. अश्‍वसेन सर्प, मय दानव और चार शार्ड्ग पक्षी. बाद में मय दानव, अर्जुन और श्रीकृष्ण यमुमा तट पर बैठ जाते हैं. श्रीकृष्ण कहते हैं कि मयासुर से कौन सा काम लेना चाहिए. श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि मयासुर तुम शिल्पियों में श्रेष्ठ हो अत: तुम यदि धर्मराज युधिष्‍ठिर की सेवा करना चाहते हो तो उनके लिए यहां एक सभा बना दो. वह सभा ऐसी हो कि चतुर शिल्पी भी देखकर उसकी नकल न कर सके. तब मयासुर ने इस वन में मयसभा का निर्माण किया. मयासुर ने इस राज्य में मयसभा नामक भ्रमित करने वाला एक भव्य महल बनाया था. यह महल इंद्रजाल जैसा बनाया गया था. कहते हैं कि इस महल के आसपास दिव्य और सुन्दर उद्यान और मार्गों का निर्माण किया. उन्होंने जलाशयों के गड्ढों से घिरे हुए एक नगर को बनाया और उसकी रक्षात्मक प्राचीरें बनाईं. श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर का सौन्दर्यीकरण किया.

वह शहर एक द्वितीय स्वर्ग के समान हो गया. यहां से दुर्योधन की राजधानी लगभग 45 मील दूर हस्तिनापुर में ही रही. द्वारिका की तरह ही इस नगर के निर्माण कार्य में मय दानव और भगवान विश्वकर्मा ने अथक प्रयास किए थे जिसके चलते ही यह संभव हो पाया था. इंद्रप्रस्थ का नाम भगवान इंद्र पर रखा गया, क्योंकि इस नगर को इंद्र के स्वर्ग की तरह बसाया गया था. इंद्र अर्जुन के पिता भी थे. कहते हैं कि कि यहां एक खंडहर था. भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को खांडव वन ले जाते हैं और वहां वे उस वन खंडहरों को दिखाते हैं. अर्जुन ने पूछा कि हम इसे कैसे अपनी राजधानी बनाएंगे? तब मयासुर को इस नगर को बसाने का आदेश देते हैं. मयासुर श्रीकृष्ण और अर्जुन को उस खंडहर में ले जाता है. खंडहर में एक रथ, धनुष और गदा रखी होती है. रथ श्रीकृष्ण को दे दिया जाता है, धनुष अर्जुन को और गदा भीम को दे देते हैं. आज हम जिसे ‘दिल्ली’ कहते हैं, वही प्राचीनकाल में इंद्रप्रस्थ था. दिल्ली के पुराने किले में जगह-जगह शिलापटों पर लगे इन वाक्यों को पढ़कर यह सवाल जरूर उठता है कि पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ कहां थी? खुदाई में मिले अवशेषों के आधार पर पुरातत्वविदों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि पांडवों की राजधानी इसी स्थल पर रही होगी.

यहां खुदाई में ऐसे बर्तनों के अवशेष मिले हैं, जो महाभारत से जुड़े अन्य स्थानों पर भी मिले हैं. दिल्ली में स्थित सारवल गांव से 1328 ईस्वी का संस्कृत का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है. यह अभिलेख लाल किले के संग्रहालय में मौजूद है. इस अभिलेख में इस गांव के इंद्रप्रस्थ जिले में स्थित होने का उल्लेख है. दिल्ली को उस काल में इंद्रप्रस्थ का जाता था और मेरठ को हस्तिनापुर. दिल्ली में पुराना किला इस बात का सबूत है. खुदाई में मिले अवशेषों के आधार पर पुरातत्वविदों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि पांडवों कि राजधानी इसी स्थल पर थी. दिल्ली कई ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा है. पुराना किला दिल्ली में यमुदा नदी के पास स्थित है, जिसे पांडवों ने बनवाया था. बाद में इसका पुनरोद्धार होता रहा.

महाभारत के अनुसार यह पांडवों की राजधानी थी. दूसरी ओर कुरु देश की राजधानी गंगा के किनारे ‍हस्तिनापुर में स्थित थी. दिल्ली का लालकोट क्षेत्र राजा पृथ्वीराज चौहान की 12वीं सदी के अंतिम दौर में राजधानी थी. लालकोट के कारण ही इसे लाल हवेली या लालकोट का किला कहा जाता था. बाद में लालकोट का नाम बदलकर शाहजहानाबाद कर दिया गया.

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com