संस्कृति अर्थात सम्यक कृति। विश्वनियन्ता द्वारा निर्मित अनन्त कृतियों में श्रेष्ठ कृति कौन सी है? इस प्रश्न का उत्तर खोजा जाए, तो मनुष्य ही उस गौरवपूर्ण पद को प्राप्त करेगा, यह नि:संशय बात है। भगवान नें गीता में मनुष्य को अपना ही एक अंश कहकर गौरवास्पद बनाया है। परमेश्वर की इस श्रेष्ठ कृति मनुष्य को सदैव श्रेष्ठता के उन्नत शिखर पर स्थिर रहने का मार्गदर्शन देने वाली, हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा निर्मित विचारप्रणाली और तदनुकूल आचारसंहिता का भी काल अनुसार संस्कृति में समावेश हुआ।

विचारों का विस्तार अनवधि कालमर्यादा में सुरक्षित रखना आसान न होने से उन महान विचारों नें सूत्रों का रूप धारण करके आत्मसंरक्षण की योजना बना ली। इन विचार-सूत्रों नें ही बाद में यथोचित प्रतीकों का रूप ले लिया। आचारसंहिता में आ रही निरे शुष्क उपदेशों की जड़ता को दूर करने के लिए शास्त्रकारों नें विभिन्न प्रकार के त्यौहार बनाए।
त्यौहारों के उमंग में आचारपालन सहज और रसपूर्ण हुआ। योग्य अर्थ में यदि प्रतीकों को समझकर त्यौहारों को मनाया जाए तो संस्कृति किसी भी समय पुनर्जीवित हो सकती है। प्रतीकों में बुद्धि का वैभव दिखाई देता है तो त्योहारों में भाव का प्रवाह दिखाई पडता है। प्रतीकों में बुद्धि की सजावट है तो त्यौहारों में ह्रदय की शिक्षा है। आज की भाषा में कहना हो तो प्रतीक संस्कृति के विचारविज्ञान है, जब कि त्यौहार हैं उन विचारों को आसानी से आचार-व्यवहार में लाने की कला।
भाव और बुद्धियुक्त प्राणी होने के नाते त्यौहार और प्रतीक दोनों मानव के जीवननिर्माण् में अमूल्य योगदान करते हैं। भाव और बुद्धि जीवन में से सम्मिश्रित हुए हैं कि उन दोनों को पृथक-पृथक देखना कठिन है और इसीलिए कईं प्रतीकों को और त्योहारों को अलग करना अशक्यवत प्रतीत होता है। हमारे प्रतीक और त्यौहारों का सभ्यता की अपेक्षा संस्कारों से कहीं गहरा नाता है। संस्कारसर्ज में उन सांस्कृतिक तत्वों का हिस्सा बहुत ही प्रशंसनीय है।
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