धार्मिक ग्रंथों में लिखी जानकारी के अनुसार आत्मा ईश्वर का अंश होती है। इसलिए आत्मा ईश्वर की ही तरह अमर होती है। संस्कारों के कारण इस दुनिया में आत्मा का अस्तित्व भी मौजूद है। आत्मा वह जब जिस शरीर में निवास करती है, तो उसे उसी स्त्री या पुरुष के नाम से जाना जाता है। आत्मा रंगहीन व रूपहीन होती है, इसका कोई लिंग भी नहीं होता है। ऋगवेद में लिखा है जीवात्मा अमर है और शरीर नाशवन। जब तक शरीर में प्राण रहता है तब तक वह क्रियाशील रहता है। इस आत्मा के संबंध में बड़े-बड़े पंडित और मेधावी पुरुष भी नहीं जानते। इसे ही जानना मानव जीवन लक्ष्य है।
बृहदारण्यक उपनिषद् नामक महालेख में आत्मा के बारे में लिखा गया है, की आत्मा वह है, जो पाप से मुक्त, जिसे मौत व शोक नहीं होता है। भूख और प्यास भी नहीं लगती है, जो किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखती, किसी वस्तु की कल्पना नहीं करती, यह एक ऐसा सत्य है जिसे समझने की कोशिश करना चाहिए।
गीता में आत्मा की अमरता की व्याख्या करते हुए कहा है की
- न जायते म्रियते वा कदचिन्नायं भूत्वा भविता
न भूय: अजो नित्यं शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
अर्थात यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मती है न मरती है। आत्मा अजन्मी, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह जीवित रहती है।
- वसांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
और शरीरराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने कपड़ों को बदल कर नए कपड़ों को धारण कर लेता है। वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीर में चली जाती है। शरीर की मृत्यु हो जाने के बाद आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति के लिए 13 दिनों का समय लगता है। इसलिए इस दौरान आत्मा की शांति व मुक्ति के लिए पूजा पाठ, दान दक्षिणा आदि अनुष्ठान किए जाते हैं। इन 13 दिनों के बाद आत्मा पितृलोक चली जाती है। आत्मा की अमरता की यही कहानी है।