देहरादून, बरसात हमेशा ही पहाड़ के लिए राहत से ज्यादा मुसीबत लेकर आती है। इस दफा भी मानसून उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में आम जनजीवन के साथ पहाड़ जैसी सख्ती से पेश आया। भूस्खलन से सड़कें जगह-जगह क्षतिग्रस्त हुईं तो पुल भी टूट गए। गोपेश्वर के गुनाली गांव में तो अब भी पत्थरों की बारिश हो रही है। अहम बात यह है कि गुनाली में यह स्थिति वर्ष 2018 से बनी हुई है। ऐसे में सिस्टम से यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि मानसून के आगे उसकी तैयारी हमेशा बौनी क्यों पड़ जाती है। माना कि मानसून पर किसी का वश नहीं है, मगर बेहतर प्रबंधन से इससे उपजने वाली दुरूह परिस्थितियों से पार तो पाया ही जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि आपदा से निपटने के दावे सिर्फ कागजों में ही सिमटे न रहें। जिम्मेदार महकमे इसे अपनी समस्या समझकर समाधान के लिए पूरे मनोयोग से जुटें।
सीख दे गई अनीता की विदाई
वैसे तो पदोन्नति हर किसी के लिए हर्ष का विषय होती है। मगर, चमोली जिले की दशोली विकासखंड के प्राथमिक विद्यालय बाटुला की शिक्षिका अनीता वर्मा की पदोन्नति का यहां के ग्रामीणों पर दूसरा ही असर देखने को मिला। असल में पदोन्नति के साथ शिक्षिका का दूसरे विद्यालय में स्थानांतरण हो गया। यह बात जानकर ग्रामीण महिलाएं भावुक हो गईं। विदाई के वक्त उनसे लिपटकर रोने लगीं, मानो बेटी को मायके से ससुराल के लिए विदा कर रही हों। ग्रामीणों के इस प्रेम की वजह है शिक्षिका का अपने पेशे के प्रति सेवाभाव। जिसकी बदौलत एक समय पांच या छह छात्र संख्या वाले इस प्राथमिक विद्यालय में आज 35 विद्यार्थी अध्ययनरत हैं। अनीता से उन कार्मिकों को प्रेरणा लेनी चाहिए, जो पहाड़ चढ़ने से कतराते हैं। उनका सेवाभाव यह भी बताता है कि प्रयास और ईमानदारी साथ हों तो सरकारी विद्यालयों में छात्र संख्या बढ़ाना इतनी बड़ी चुनौती भी नहीं है।
अपनी पहचान मिले तो बात बने
जीआइ टैग यानी किसी उत्पाद की भौगोलिक पहचान, जो दर्शाता है कि वह उत्पाद एक विशिष्ट क्षेत्र से आता है। उत्तराखंड में ऐसे खास उत्पादों की भरमार है। देश-दुनिया में इनकी अच्छी मांग भी है। बावजूद इसके इन उत्पादों को अपनी पहचान नहीं मिल पा रही। खासकर, उत्तरकाशी जिले के हर्षिल में उगने वाले सेब को। जो विशिष्ट माना जाता है। बावजूद इसके देश-दुनिया को इसके बारे में कम ही मालूम है। वजह यह है कि उत्तराखंड का सेब हिमाचल की पेटियों में बिक रहा है। हालांकि, इस दिशा में सरकार अब संजीदा नजर आ रही है। विश्व को उत्तराखंड के सेब से रूबरू कराने के लिए इसी सितंबर में देहरादून में अंतरराष्ट्रीय सेब महोत्सव का आयोजन किया गया था। हालांकि, उत्तराखंड के सेब को देश-दुनिया के बाजार में पहचान दिलाने के लिए सरकार को इसके अतिरिक्त भी प्रयास करने होंगे। अपनी पहचान मिलने से न सिर्फ इसकी मांग बढ़ेगी, बल्कि प्रदेश में रोजगार के अतिरिक्त द्वार भी खुलेंगे।
समझना होगा अपनी संस्कृति का महत्व
शरद ऋतु की दस्तक के साथ ही दो वर्ष के अंतराल के बाद एक बार फिर गांव से लेकर शहर तक रामलीला के मंचन को मंच सज गए हैं। मगर, विडंबना यह है कि आधुनिकता और तकनीक की चकाचौंध में नई पीढ़ी इस परंपरा से विमुख होती जा रही है। कुछ वर्ष पहले तक रामलीला के जिन पांडाल में दर्शक बनने के लिए लोग घंटों पहले पहुंचकर मंचन का इंतजार करते थे, आज वही पांडाल सन्नाटे में अपना अस्तित्व खोजते नजर आते हैं। हमें समझना होगा कि इस परंपरा को बचाए रखने का जिम्मा सिर्फ इन कलाकारों का ही नहीं है। हम सभी का है। युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति का महत्व समझाना होगा। इसे सहेजने के लिए प्रेरित करना होगा। संस्कृति किसी भी समाज का मूल होती है। भावी पीढ़ी तक इसे पहुंचाने के लिए परंपरा माध्यम का कार्य करती है। सनातन समाज में रामलीला ऐसी ही परंपरा है।