किसान आंदोलन खत्म कराने के दिल्ली पुलिस के वो पांच दांव नहीं चले, जिन्हें आमतौर पर धरना प्रदर्शन के दौरान आजमाया जाता है। अमूमन हर राज्य की पुलिस ऐसे मौके पर इन तरीकों का सहारा लेती है। इनमें किसी भी तरह से आंदोलनकारियों का रास्ता रोकना, आंदोलनकारी को इतना थका देना कि वे खुद पीछे हटने पर मजबूर हो जाएं, प्रदर्शन स्थल तक जरुरत की वस्तुओं की सप्लाई चेन काट देना, धरना स्थल तक जाने वाले रास्तों को डायवर्ट कर उन्हें लंबा बना देना और आंदोलनकारियों के बीच किसी तरह के हमले जैसी कोई बात फैलाना, शामिल हैं। दिल्ली के किसान आंदोलन में पुलिस की यह थ्योरी बेअसर रही है।
दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी के मुताबिक, किसी भी प्रदर्शन या आंदोलन से निपटने की एक थ्योरी होती है। आंदोलन चाहे, स्टूडेंट का हो, कर्मचारी यूनियन का हो या किसानों का, इस थ्योरी को सभी जगहों पर लागू किया जा सकता है।
इस थ्योरी के तहत सबसे पहले इसमें प्रदर्शनकारियों का रास्ता रोका जाता है। यह प्रयास रहता है कि आंदोलनकारी अपने मुकाम तक न पहुंच सकें। इसके लिए कई बार ट्रांसपोर्ट पर बंदिशें लगा दी जाती हैं। मेट्रो, भारतीय रेल और सार्वजनिक पथ परिवहन सेवा को बंद करना पड़ सकता है। यदि प्रदर्शनकारी सड़क मार्ग से आ रहे हैं तो वहां बाधा खड़ी की जाती है। जैसे पंजाब से आने वाले किसानों के पास हैवी व्हीकल थे तो उनके रास्ते में लगाई गई तमाम बाधाएं नाकाम साबित हुई। सड़क काटना, बड़े अवरोध, पानी की बौछार और आंसू गैस के गोले छोड़ना भी इसी रणनीति का हिस्सा हैं।
अगर प्रदर्शनकारी, आंदोलन स्थल तक पहुंच जाते हैं या वे बीच में डेरा डाल देते हैं तो उन्हें किसी भी तरह परेशान करने का प्रयास होता है। इसके पीछे यह मकसद रहता है कि वे हार थक कर पीछे हट जाएंगे। यानी वे आंदोलनकारी वापस अपने घरों को लौट जाएं। इसमें बार बार पानी की बौछार की जाती है। प्रदर्शनकारियों के वस्त्र गीले रखने का प्रयास किया जाता है। किसानों के मामले में यह दांव भी नहीं चल सका। किसान अपनी जगह से हिले तक नहीं।
इसके बाद पुलिस थ्योरी कहती है कि धरना स्थल तक जरुरत की वस्तुओं की सप्लाई रोक दी जाए। इसमें भोजन, कपड़े और आंदोलन के दौरान काम आने वाले दूसरे उपकरण शामिल हैं। आंदोलन में और ज्यादा भीड़ न बढ़ सके, इसके लिए वहां तक पहुंचने के रास्तों को लंबा कर दिया जाता है। नियमित रोड को बंद कर आंदोलनकारियों को लंबे रास्ते पर डायवर्ट कर देते हैं। इसके पीछे पुलिस की मंशा होती है कि प्रदर्शनकारी परेशान होकर वापस लौट जाएं। दिल्ली पहुंचे किसानों के मामले में यह रणनीति भी फेल हो गई। किसान, पंजाब और यूपी के दूर दराज के इलाकों से सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर दिल्ली बॉर्डर तक पहुंच गए।
आखिरी रणनीति यह रहती है कि जब प्रदर्शन स्थल पर भीड़ बढ़ जाती है तो वहां ऐसी सूचनाएं फैलाई जाती है कि जिससे प्रदर्शनकारियों में असुरक्षा का माहौल पैदा हो जाए। ये सूचनाएं सार्वजनिक तौर पर नहीं, बल्कि मानवीय इंटेलिजेंस के जरिए आगे बढ़ाई जाती है। इंटेलिजेंस के आदमी आंदोलनकारियों की भीड़ में शामिल होकर किसी भी आतंकी हमले जैसी बात करने लगते हैं। इसके अलावा आंदोलन में से ही कुछ लोगों को ऐसी सूचनाएं फैलाने के लिए तैयार कर लिया जाता है। इस कार्य में मुखबिरों की मदद भी ली जाती है।
इसके पीछे पुलिस का यह प्रयास रहता है कि आंदोलनकारी भयभीत होकर उस जगह से हटना शुरु कर दें। दिल्ली में अनेक बार पहले भी इन तरीकों का इस्तेमाल किया गया है। खासतौर पर, निर्भया कांड और एसएससी छात्रों के आंदोलन में ये तरीके आजमाए गए थे। उस वक्त पुलिस को सफलता भी मिली थी। पुलिस अधिकारी के अनुसार, जब कोई आंदोलन राजनीति से प्रेरित होता है या उसे राजनीतिक मदद मिलती है तो उस समय पुलिस को मौका देखकर नई रणनीति पर काम करना पड़ता है।