प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह इस बार के लोकसभा चुनाव में 2014 के मुकाबले ज्यादा सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं, हालांकि उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ नेता इस दावे से अलग बातें कहने लगे हैं. पहले सुब्रमण्यम स्वामी तो अब राम माधव ने ऐसे संकेत दिए हैं कि बीजेपी को बहुमत हासिल करने के लिए सहयोगियों की जरूरत पड़ सकती है.
सवाल है कि आखिर इस बार ऐसा क्या अलग है जो इन नेताओं को पिछली बार जैसे नतीजे न दोहराए जाने का अंदेशा है.
विपक्षी गठबंधनों का जाल
लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी को कई राज्यों में विपक्षी दलों के गठबंधन से कड़ी चुनौती मिल रही है. यूपी में सपा-बसपा-आरएलडी से बीजेपी का कड़ा मुकाबला है, जबकि पिछले चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगी दल 80 में से 73 सीटें जीते थे. महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी, बिहार में कांग्रेस-आरजेडी के नेतृत्व वाला गठबंधन तो झारखंड में कांग्रेस-जेएमएम गठबंधन इस बार 2014 की तुलना में ज्यादा मजबूत है.
यही नहीं, कांग्रेस कर्नाटक में जेडीएस और तमिलनाडु में डीएमके के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरी है. बीजेपी ने भी इन राज्यों में गठबंधन कर रखा है लेकिन उसके लिए मुकाबला 2014 जैसा एकतरफा नहीं है. इन राज्यों में कुल 250 सीटें हैं. 2014 में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए ने इनमें से 214 सीटें जीती थीं. अकेले बीजेपी की इनमें से 147 सीटें थीं.
कांग्रेस की राज्यों में वापसी
लोकसभा चुनाव से ऐन पहले देश की तीन हिंदीभाषी राज्यों में कांग्रेस के हाथों में बीजेपी को अपनी सत्ता गवांनी पड़ी है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को मिली जीत से पार्टी के हौसले बुलंद हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी इन तीनों राज्यों की कुल 65 सीटों में से 62 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. इस बार इन राज्यों में कांग्रेसी की सत्ता में वापसी से बीजेपी के लिए इन राज्यों में पुराने नतीजे दोहराना आसान नहीं है.
दक्षिण में मजबूत साथी नहीं
लोकसभा चुनाव 2019 में दक्षिण भारत में तमिलनाडु छोड़कर बीजेपी के साथ किसी राज्य में कोई मजबूत साथी नहीं है. जबकि 2014 में बीजेपी आंध्र प्रदेश में टीडीपी के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरी थी. इस बार के सियासी रण में बीजेपी ने AIADMK के साथ गठबंधन किया है, लेकिन जयललिता की अनुपस्थिति और राज्य की सत्ता विरोधी लहर का सामना उसे करना पड़ रहा है.
इसके अलावा कांग्रेस कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में गठबंधन कर चुनावी मैदान में है. इतना ही नहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुद भी दक्षिण भारत को साधने के लिए केरल की वायनाड सीट से किस्मत आजमा रहे हैं.
2014 जैसा माहौल नहीं
लोकसभा चुनाव में इस बार 2014 जैसा राजनीतिक माहौल अभी तक नजर नहीं आ रहा है. मतदाता पूरी तरह से खामोश नजर आ रहे हैं. विपक्षी नेता भी तब दबी जुबान में मोदी लहर की मौजूदगी स्वीकार करते थे. पार्टी का कैडर भी अभूतपूर्व जोश में था. नरेंद्र मोदी की रैलियों में मोदी-मोदी का शोर आज की तुलना में कहीं ज्यादा था.
इसी का नतीजा था कि बीजेपी अपने राजनीतिक इतिहास में पहली बार सबसे ज्यादा 282 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. इस बार के लोकसभा चुनाव में वैसा सियासी माहौल नजर नहीं आ रहा है.
सत्ता में रहने की जवाबदेही
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी 2014 में ज्यादा हमलावर थी क्योंकि सत्ता में रहने के चलते जवाबदेही कांग्रेस और उसकी सरकार की थी. लेकिन आज देश में रोजगार से लेकर किसानों तक की समस्या के लिए जवाबदेही खुद पीएम मोदी और बीजेपी की है.
2014 में कांग्रेस सत्ता में थी और बीजेपी विपक्ष में, जिसके चलते नरेंद्र मोदी अपनी रैलियों में हर समस्या के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा रहे थे, लेकिन अब जब खुद सत्ता में हैं तो वे विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं बता सकते. मतदाता भी बहुत आसानी से इसे समझ रहा है.
चुनावी रण में बीजेपी को त्रिदेव का सहारा
इस बार के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रचार अभियान में प्रमुख तौर पर तीन चेहरे ही नजर आ रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ.
इनमें पीएम मोदी और अमित शाह सबसे ज्यादा रैली कर रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि पार्टी के बाकी नेता चुनावी प्रचार नहीं कर रहे लेकिन मतदाताओं को यही तीन नेता ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं. इसके उलट 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की पूरी टीम चुनावी अभियान को धार देने में जुटी हुई थी.