धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला 'निजता के अधिकार' से यूं पलटा

सुप्रीम कोर्ट का फैसला- सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाए अथवा नहीं,

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 की समीक्षा के लिए मंजूरी देकर इसी मामले में अपने 4 साल पुराने फैसले को पलट दिया। दो बालिग व्यक्तियों के बीच आपसी सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाए अथवा नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ फिर से विचार करेगा। इस फैसले की दिशा में पहला कदम 5 महीने पहले ही उठा था, जब 9 जजों की बेंच ने कहा था कि एलजीबीटी समुदाय के लोगों को सेक्शुअल संबंधों के लिए आजादी को निजता के अधिकार के दायरे से अलग नहीं किया जा सकता है।धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला 'निजता के अधिकार' से यूं पलटा

 सर्वसहमति से दिए फैसले में 9 जजों की बेंच ने निजता के अधिकार को जीवन के अधिकार के समान माना। इस फैसले को पढ़ते हुए जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय कृष्ण कौल ने एलजीबीटी समुदाय के सेक्स संबंधों में निजता के अधिकार का हवाला देते हुए कहा था कि एलजीबीटी समुदाय के निजता के अधिकार का हनन उनकी सेक्शुअल पसंद के कारण नहीं किया जा सकता। 
9 जजों की बेंच ने नाज फाउंडेशन से संबंधित जजमेंट का जिक्र किया और कहा कि सेक्शुअल ओरिएंटेशन (रुझान) निजता का महत्वपूर्ण अंग है। कोर्ट ने कहा, ‘नाज फाउंडेशन मामले में दिए फैसले में हाई कोर्ट ने धारा-377 को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए धारा-377 यानी होमोसेक्शुअलिटी को अपराध करार दिया था। इस मामले में अदालत ने जो कारण बताया वह सही नहीं था कि वह निजता को अनुच्छेद-21 का पार्ट क्यों नहीं मान रहे। निजता का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा है, इसे इस आधार पर मना नहीं किया जा सकता कि समाज के छोटे हिस्से LGBT (लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल और ट्रांसजेंडर) की ये बात है।’ 
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने फैसले में कहा, ‘सेक्शुअल ओरिएंटेशन निजता का महत्वपूर्ण अंग है। किसी के साथ भी सेक्शुअल ओरिएंटेशन के आधार पर भेदभाव करना उसके गरिमा के प्रति अपराध है। किसी का भी सेक्शुअल ओरिएंटेशन समाज में संरक्षित होना चाहिए। अनुच्छेद-14, 15 और 21 के मूल में निजता का अधिकार है और सेक्शुअल ओरिएंटेशन उसमें बसा हुआ है।’ 
अपने फैसले में आगे जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘दो जजों की बेंच ने धारा 377 पर अपना फैसला दिया, लेकिन इस फैसले के पीछे जो तर्क दिए उन्हें बहुत सराहनीय नहीं कहा जा सकता है। देश में गे, लेजबियन या एलजीबीटी समुदाय के लोगों की संख्या भले ही कितनी कम हो, लेकिन इस आधार पर उनके निजता के अधिकार के हनन को न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। न्याय का तकाजा बहुमत के आधार पर तय किया जाना नहीं। चाहे कोई समुदाय कितना ही छोटा क्यों न हो न्याय पर उनका भी समान अधिकार है।’ 

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