देश में अगस्त महीने के पहले रविवार को मित्रता दिवस मनाया जाता है। इस बार मित्रता दिवस 1 अगस्त को पड़ रहा है। यूं तो मित्रता दिवस को सेलिब्रेट करने का कल्चर पश्चिमी देशों से यहां आया है, जिसका लक्ष्य अपने मित्रों के प्रति आभार व्यक्त करना है। मगर यदि आप इस आधुनिक युग से हटकर अपने देश की प्राचीन संस्कृति पर ध्यान दे तो देखेंगे कि यहां सच्ची मित्रता निभाने, मित्रों को बराबरी का सम्मान देने तथा उनसे जिंदगीभर अटूट संबन्ध निभाने की निष्ठा युगों से लोगों में पाई जाती रही है।
1- कृष्ण-सुदामा
प्रभु श्रीकृष्ण के दोस्तों में सबसे पहले सुदामा को याद किया जाता है। श्रीकृष्ण महलों के राजा थे तथा सुदामा निर्धन ब्राह्मण, मगर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी मित्रता के बीच के इस फर्क को कभी नहीं आने दिया। जब श्रीकृष्ण के बचपन के मित्र सुदामा उनके पास आर्थिक मदद मांगने द्वारका पहुंचे, तो उन्हें संशय था कि श्रीकृष्ण उन्हें पहचान भी पाएंगे या नहीं। मगर श्रीकृष्ण सुदामा का नाम सुनते ही नंगे पैर भागते हुए उनसे मिलने पहुंचे। ससम्मान उन्हें महल में लाए। भावुक होकर रोए भी। एक दरिद्र के प्रेम में रोते हुए देख न सिर्फ प्रजा बल्कि कृष्ण की रानियां भी दंग रह गई थीं। सुदामा द्वारा लाए गए चावलों को उन्होंने ऐसे खाया मानो कि वो खास पकवान खा रहे हों। सुदामा को देखते ही वो उनकी चिंता को समझ गए तथा बगैर मांगे ही उन्हें सब कुछ दे दिया तथा संपन्न कर दिया।
2- कृष्ण-अर्जुन
कहने को अर्जुन प्रभु श्रीकृष्ण के भाई लगते थे, मगर वो उन्हें अपना मित्र मानते थे। रुक्षेत्र की रणभूमि पर श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बनकर उन्हें सच्चाई पर चलते हुए न्याययुद्ध का पाठ पढ़ाया। जब अर्जुन निराश हुए तो उनको प्रेरित किया। श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन के दम पर ही अर्जुन अपनों से अधर्म के खिलाफ युद्ध कर पाए तथा आखिर में पांडवों ने विजय प्राप्त की।
3- कृष्ण-द्रौपदी
दौपदी प्रभु श्री श्रीकृष्ण को अपना भाई एवं दोस्त मानती थीं। जब द्रौपदी ने चीरहरण के वक़्त श्रीकृष्ण को याद किया तो उन्होंने उनकी सहायता की तथा चीरहरण होने से बचाया। ये हमें सिखाता है कि परेशानी के वक़्त हमें हमेशा अपने दोस्त की सहायता करनी चाहिए।
4- कृष्ण–अक्रूर
अक्रूर रिश्ते में श्रीकृष्ण के चाचा लगते थे, मगर उनके अनन्य भक्त भी थे। अक्रूर ही श्रीकृष्ण एवं बलराम को वृन्दावन से मथुरा लेकर गए थे। मार्ग में उन्हें प्रभु श्रीकृष्ण ने अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए थे। अक्रूर जी ने श्रीकृष्ण का सच जानने के पश्चात् अपने आपको उनको समर्पित कर दिया था। प्रभु तथा भक्त का संबन्ध होने के बाद भी श्रीकृष्ण ने इसे सहज तौर पर मित्रता की भांति निभाया।
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