छत्तीसगढ़ विधानसभा में आरक्षण संशोधन विधेयक पास होने के बाद से ही राजभवन और सरकार के बीच तकरार जारी है। ताजा मामले में बिलासपुर हाई कोर्ट ने राज्यपाल को नोटिस जारी किया है। पहली बार सरकार ने राज्यपाल के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर कर सीधी तकरार को निमंत्रण दे दिया है।
हालांकि राजभवन की ओर से भी साफ कर दिया गया है कि राज्यपाल को विशेषाधिकार प्राप्त है और उन्हें नोटिस देने का अधिकार कोर्ट को नहीं है। विधानसभा में आरक्षण संशोधन विधेयक दो दिसंबर 2022 को पारित किया गया था। उसी दिन विधेयक को राज्यपाल के पास भेज भी दिया गया परंतु उन्होंने हस्ताक्षर नहीं किया बल्कि सरकार से दस प्रश्न पूछ लिए। सरकार ने इसे उनकी हठधर्मिता कहा।
आरोप लगाया कि वह भाजपा के इशारे पर काम कर रही हैं। बात यहां तक पहुुंची कि राज्यपाल को यह कहना पड़ा कि किसी को भी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के प्रति अशोभनीय कथन कहने का अधिकार नहीं है। इस मुद्दे पर बीते सवा दो महीने से रोज बयानबाजी हो रही है। सोमवार को हाई कोर्ट से राज्यपाल को नोटिस जारी होने के बाद तल्खी और बढ़ती दिख रही है।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मंगलवार को कहा कि राज्यपाल अधिकारों का दुरूपयोग कर रही हैं। जो बिल विधानसभा से पारित हुआ है, उसके बारे में सरकार से प्रश्न पूछने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। उसी के आधार पर तो हम कोर्ट गए हैं। कोर्ट ने यदि उनको नोटिस दिया है, तो उसका जवाब कोर्ट को देना चाहिए, बाहर नहीं। राज्यपाल को वकील भी लगाना है तो राज्य सरकार से पूछकर ही लगाएंगी न, क्योंकि सरकार की सलाह से ही राज्यपाल काम करती हैं। उन्होंने कहा कि क्या भाजपा कार्यालय ही राजभवन संचालन का केंद्र बन गया है।
राज्यपाल द्वारा विधेयक पर हस्ताक्षर न करना पाकेट-वीटो की श्रेणी में आता है। इस संबंध में भारत का संविधान मौन है कि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक पर सहमति या असहमति देने के लिए बाध्य हैं या नहीं। दरअसल, संविधान की इसी कमी का लाभ लेते हुए राज्यपाल चाहें तो किसी विधेयक को हमेशा के लिए अपने पास पास रखने में समर्थ है। वह उसे लेकर अपनी सहमति या असहमति देने के लिए बाध्य भी नहीं है। इसे ही पाकेट-वीटो कहते हैं।
संविधान का अनुच्छेद-361 उपबंधित करता है कि राज्यपाल किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा। अनुच्छेद-361 के उपबंध-चार में दिए गए प्रविधान के अंतर्गत दो माह पूर्व सूचना जारी करके राज्यपाल को पक्षकार बनाकर याचिका दायर की जा सकती है। लिहाजा, छत्तीसग.ढ शासन द्वारा राज्यपाल के रवैये के विरुद्ध हाई कोर्ट में याचिका दायर करके कोई विधिक त्रुटि नहीं की गई है।
संविधान जिन बिंदुओं पर मौन है, उन बिंदुओं के संबंध में और संविधान की व्याख्या के संबंध में हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की जा सकती है। कोर्ट द्वारा न्यायिक निर्णय व न्यायिक पुनरीक्षण करके समुचित आदेश पारित किया जा सकता है। इससे पूर्व दिल्ली व तमिलनाडु सरकार द्वारा राज्यपाल के विरुद्ध याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। हाई कोर्ट द्वारा उन पर सुनवाई के बाद समुचित न्यायिक आदेश भी पारित किए गए हैं।
-अधिवक्ता रामेश्वर सिंह ठाकुर व विनायक प्रसाद शाह
(दोनों मध्य प्रदेश के राज्यपाल द्वारा मप्र हाई कोर्ट में ओबीसी का पक्ष रखने के लिये नियुक्त विशेष अधिवक्ता हैं।)