बिहार में जेडीयू और आरजेडी के बीच विश्वास की डोर कमजोर पड़ती जा रही है. अगर बिहार में महागठबंधन में बिखराव होता है कि इसका असर केवल बिहार की राजनीति ही नहीं, देश की राजनीति पर भी पड़ेगा. क्योंकि बिहार में जिस तरह से महागठबंधन ने विधानसभा चुनाव में कामयाबी हासिल की, इससे दूसरे राज्यों के क्षेत्रीय दलों में जोश भरा.केंद्र सरकार ने स्कूली बच्चों को दी भारी बस्तों से दी बड़ी राहत….
खासकर उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा की करारी हार के बाद एक सवाल सामने खड़ा था कि अगर बिहार के तर्ज पर यूपी में सपा और बसपा साथ होते तो चुनाव परिणाम की तस्वीर कुछ और होती. यही नहीं, भविष्य में ये दोनों पार्टियां बीजेपी से मुकाबले के लिए साथ आने पर भी अंदरखाने तैयार थी, जिसका संकेत खुद अखिलेश यादव ने दिया था. इसके पीछे चाहे बीजेपी का डर हो या फिर राजनीति अस्तित्व को बचाए रखने की कोशिश.
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अब बड़ा सवाल ये है कि अगर बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव अलग-अलग राह पर चलते हैं तो फिर दोनों के लिए आगे के रास्ते आसान होंगे? या फिर यह फैसला दोनों के अस्तित्व को खतरे में डाल देगा? जेडीयू-आरजेडी की इस लड़ाई में गठबंधन का टूटना नीतीश के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकता है.
1. अगर नीतीश कुमार महागठबंधन से अलग होते हैं तो उनके सामने विकल्प के तौर पर बीजेपी है. नीतीश बीजेपी के समर्थन से सत्ता में बने रहेंगे. लेकिन क्या वो ‘मोदी युग’ में बीजेपी के साथ होकर अपने फैसलों को बिहार में लागू कर पाएंगे. क्योंकि हाल के दिनों में जिन राज्यों में बीजेपी क्षेत्रीय दलों के साथ सत्ता में भागीदार रही, वहां क्षेत्रीय पार्टियां कमजोर हुई हैं. ऐसे में नीतीश के सामने बीजेपी के साथ गठबंधन चलाने के अलावा अपनी राजनीतिक जमीन को भी बरकरार रखना एक चुनौती होगी.
2. लालू यादव के साथ बनने रहने में नीतीश कुमार को एक फायदा तो जरूर है. क्योंकि लालू यादव जिस तरह से घोटालों के कई मामलों में घिर हैं इससे उनकी निजी सक्रिय राजनीति की राह आगे भी आसान नहीं है. ऐसे में नीतीश हमेशा आरजेडी के साथ गठबंधन में फ्रंट फूट पर रहेंगे, और इससे लालू को भी शायद कोई आपत्ति नहीं है और नहीं होगी. यही नहीं, पिछले दो सालों में ये दिखा भी है कि लालू यादव ने कभी नीतीश के फैसलों पर सवाल नहीं उठाया.
3. जिस तरह से नीतीश कुमार की अगुवाई में महागठबंधन की सरकार ने बिहार में दो साल का सफर बिना किसी विवाद का तय किया है, उससे नीतीश कुमार का बिहार के बाहर भी कद बढ़ा है. दूसरे गैर-बीजेपी शासित राज्यों में नीतीश-लालू गठबंधन की तरह क्षेत्रीय पार्टियां एक मंच पर आने की सोच रही थी, ऐसे में नीतीश का अलग होने का फैसला दूसरे राज्यों में महागठबंधन की नींव पड़ने से पहले खत्म हो जाएगी. खासकर उत्तर प्रदेश में इसका असर पड़ेगा.
4. नीतीश की ओर क्षेत्रीय पार्टियों के अलावा कांग्रेस भी उम्मीद की नजर से देख रही है, क्योंकि 2014 लोकसभा चुनाव के बाद से जिस तरह कांग्रेस दिनों-दिन कमजोर पड़ती जा रही है ऐसे में बिहार के बाहर भी नीतीश की राजनीतिक पकड़ और मजबूत हो सकती है. यही नहीं, अगर बीजेपी और नरेंद्र मोदी के मुकाबले में खुलकर नीतीश सामने आते हैं तो उन्हें तमाम क्षेत्रीय दलों के साथ-साथ कांग्रेस का भी साथ मिल सकता है.
5. बिहार में भले ही आरेजडी के 80 विधायक हैं, लेकिन लालू यादव आखिरी वक्त तक महागठबंधन को बचाने की कोशिश करेंगे. हालांकि वो फिलहाल तेजस्वी के इस्तीफे पर समझौते से इनकार कर रहे हैं. लेकिन उन्हें पता है कि अगर नीतीश गठबंधन से अलग होते हैं तो आरजेडी का राजनीतिक अस्तित्व पर सवाल खड़े हो सकता है. लेकिन ये भी सच है कि आज से 2 साल पहले जिस तरह से जेडीयू-आरजेडी के अलग होने से बीजेपी की ताकत बढ़ी थी, और लालू के साथ-साथ नीतीश के राजनीतिक भविष्य पर भी खंतरा मंडराने लगा था. ऐसे में नीतीश का लालू से अलग होना एक बड़ा और खतरों से भरा फैसला हो सकता है.