लखनऊ में कानून व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा प्रदेश के सभी जिलों के जिलाधिकारी व पुलिस प्रमुखों के साथ की गई बैठक कर्मकांडी रही जिससे जमीनी स्तर पर वातावरण सुधरने की स्थिति जनमानस को नजर आयेगी इसके आसार बहुत कम हैं। बैठक में मुख्यमंत्री ने जो निर्देश दिये वे लकीर पीटने वाले थे जिनमें कोई नवीनता नजर नहीं आती। इसलिए यह बैठक मीडिया में भले ही सुर्खियों में जगह पा गई हो लेकिन आम जनता में कोई संचार नहीं कर पायी है।
मुख्यमंत्री के टिप्स
मुख्यमंत्री ने बैठक में जो बातें कही उनका सार यह है कि डीएम और एसपी के बीच अच्छा संवाद रहना चाहिए। उन्हें शायद फीडबैक मिला होगा कि जिलों के दोनों सर्वोच्च पदाधिकारियों में ईगो के टकराव की वजह से सुव्यवस्था कायम करने में बाधा आ रही है। इसके अलावा उन्होंने अधिकारियों से पहले की ही तरह हर कार्य दिवस में 9 बजे अपने दफ्तर में बैठकर एक घंटा आम जनता की समस्यायें सुनने की पहले की बात को दोहराया। दागी पुलिस कर्मियों की तैनाती किसी कीमत पर थानों में न होने देने और अधिकारियों को अपने तैनाती स्थान पर अनिवार्य रूप से रहने के निर्देश दिये। एक बार फिर उन्होंने पैदल गश्त पर पुलिस में जोर दिया।
विरासत में मिला तबाह सिस्टम
मुख्यमंत्री को तबाह सिस्टम विरासत में मिला है। उनकी ईमानदारी को देखते हुए उम्मीद थी कि वे इसे उबारने के लिए साहसिक ढ़ंग से काम करेंगे। दरअसल दिक्कत सरकार की योजनाओं में खामी से नहीं है। मुख्य समस्या भ्रष्टाचार की है जिसके कारण सरकार की हर योजना विफल हो जाती है। पुलिस में थानों की नीलामी और थानेदारो से हर महीने इकजाई वसूली का रिवाज है। जैसे-जैसे बाजार का शेयर सूचकांक उछलता है वैसे-वैसे पुलिस के साहब बहादुर भी अपना रेट रिवाइज कर देते हैं।
योगी के आने के बाद इस मामले में स्थिति ज्यादा नहीं बदली है। अब अगर बड़ी पगड़ी देकर और इसके बाद महंगे किराये पर इस्पेक्टर थाने हासिल करेंगे तो अपनी लागत मुनाफे के साथ उन्हें निकालनी पड़ेगी। जिससे उनके द्वारा अपने काम के साथ न्याय हो पाना संभव ही नहीं है। मुख्यमंत्री को यह ढ़र्रा समाप्त करने की संकल्प शक्ति दिखानी चाहिए थी। उनके पास व्यापक अभिसूचना तंत्र है जिससे वे यह जानकारी हासिल कर सकते हैं कि कौन कप्तान, डीआइजी, आइजी इस मामले में सर्वाधिक कच्चा है।
इस आधार पर अगर वे विकेट गिराने की शुरूआत कर दे तो ऐसा नहीं हो सकता कि थानो की नीलामी और इकजाई वसूली का सिस्टम समाप्त न हो जाये। पर लगता है कि ऐसा करने की कोई रूचि मुख्यमंत्री के अंदर नहीं है। जब अधिकारी नीयतखोर होंगे तो स्वच्छ पुलिस कर्मियों की ही तैनाती महत्वपूर्ण स्थानों पर की जाने की भावना कैसे फलित हो सकती है। आज हालत यह है कि खनन क्षेत्रों में तैनात सिपाही तक लाखों रूपये रोज कमाते हैं। उनके खुद के ट्रक चल रहे हैं।
कुछ ही वर्षो की नौकरी में धन्ना सेठो से आगे निकल चुके ऐसे पुलिस कर्मियों की हैसियत छुपी भी नहीं है। फिर भी कोई कार्रवाई नहीं होती। मुख्यमंत्री दागी पुलिस कर्मियों की तैनाती रोकने के लिए कितना भी राग अलापे लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे पुलिस कर्मी आज भी मनमाफिक जगह पर पोस्टिंग कराने में सफल हैं। सरकार के पास विजीलेंस है, ईओडब्ल्यू है जिससे बेशुमार चल अचल संपत्तियां जुटाने वाले पुलिस कर्मियो की निगरानी करायी जा सकती है। लेकिन ये शाखायें ऐसी कोई भूमिका नहीं निभा पा रही क्योंकि शासन से उनको प्रोत्साहन देने की मंशा नहीं दिखायी जा रही है।
क्यों पंगु रखी जा रही हैं भ्रष्टाचार निरोधक संस्थायें
होना तो यह चाहिए कि विजीलेंस, ईओडब्ल्यू, एन्टीकरप्शन, लोकायुक्त आदि में स्वेच्छा से सेवा देने के लिए अफसर आमंत्रित किये जाये और इस शाखाओं में पर्याप्त तैनाती की जाये। लेकिन ऐसा कोई प्रयास मुख्यमंत्री की ओर से नहीं किया गया। पहले के मुख्यमंत्री प्रशासन को ही अपनी और अपनी पार्टी की फंडिग का जरिया बनाये हुए थे। इसलिए वे संस्थागत सुधार के प्रयास करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारते। लेकिन योगी आदित्यनाथ की भी ईमानदारी की क्या सार्थकता है अगर वे भी ऐसा कुछ नहीं करते दिख रहे है।
बैठक में उन्होंने भू-माफियाओं और अवैध कब्जों की फिर चर्चा की। जब वे मुख्यमंत्री बने थे तब उन्होंने सपा शासनकाल में हुए अवैध कब्जों को खाली कराने की हुंकार भरी थी। बल्कि चुनाव अभियान में ही भाजपा के नेता इसे लेकर बड़ी-बड़ी डींगे हाकते थे और इसकी वजह से भी लोगों ने भाजपा को इतना बड़ा समर्थन दिया था। लेकिन लोगों के साथ इस मामले में छल हुआ।
भू-माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर चलाया गया अभियान गांवों में शमशान और खलिहान व तालाब की जमीन दबाने वाले छुटभैयों की गर्दन दबाकर निपटा दिया गया। जबकि असल मगरमच्छों को अघोषित तौर पर स्थायी अभयदान दे दिया गया। समाज में बड़े पैमाने पर गलत काम करने वालों को नापने का उदाहरण जब तक पेश नहीं किया जायेगा तब तक रूल ऑफ़ ला को कायम करने का दावा सिर्फ ढ़कोसला साबित होगा जो हो रहा है। मौजूदा दौर में चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार लोगों की गर्दन पर सवार वर्ग सत्ताओं से तालमेल करके सत्ता संचालन में विश्वास कर रही है जबकि अगर हालात बदलते दिखाना है तो सरकारों को इनसे भिड़ने की दिलेरी दिखानी ही पड़ेगी।
दूरगामी सोच को कुंद किये है घटनाओं को रोकने का फोबिया
रूल आफ ला का बहुत संबंध घटनाओं से नहीं है। कितने भी अच्छे एहतियाती इंतजामों के बावजूद वारदातें पूरी तरह नहीं रोकी जा सकती। लेकिन विधि के प्रति आज्ञाकारी समाज का निर्माण बड़ी जरूरत है। अमेरिका में आये दिन सनकी बच्चों द्वारा अंधाधुध गोलियां चलाकर सामूहिक हत्याओं को अंजाम देने की घटनाऐ सामने आती रहती हैं लेकिन इसके बावजूद महाशक्ति कहे जाने वाले इस देश की कानून व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता।
हमारे देश में घटनाओं पर ही पूरा दिमाग खपाया जाता है जबकि अराजक सोसायटी के लिए जो जिम्मेदार कारक हैं उनके निवारण के लिए माथापच्ची करने को सरकारें तैयार नहीं होती। इनमें से एक कारक जाति के आधार पर तैनातियों का भी है। मुख्यमंत्री ने बैठक में मेरिट के आधार पर थाने देने की वकालत की।
भाजपा के राज के संदर्भ में इसकी व्याख्या सवर्णो को बहुतायत में इंचार्ज बनाने के बतौर होती है। एसपी से लेकर थानेदारों तक में इस आधार पर कमान संभालने वाले पुलिस अफसर वर्ण व्यवस्था के दंभ में समाज में बहुतायत समुदायों के साथ इज्जत और सहानुभूति से पेश आने की जहमत नहीं उठाते। उपेक्षित होने से किसी में भी अनिवार्य रूप से अवज्ञा और अनास्था पनपेगी और जब बहुतायत में इसका प्रसार हो रहा हो तो शांतिपूर्ण और उत्साह जनक वातावरण के निर्मित होने के आसर बचे नहीं रह जाते।
पिछड़ो और दलितों को पर्याप्त अनुपात में महत्वपूर्ण पोस्टिंग मिलना न्याय का तकाजा है। उन्हे मौका दिये बिना ही उनकी क्षमताओं को खारिज नहीं किया जा सकता है इसके अलावा बहुतायत समुदायों में क्षमता के विकास का मौका देना भी सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है। इसलिए पुलिस प्रशासन के ढ़ांचे में सामाजिक संतुलन का ध्यान रखा जाना अनिवार्य है।
सांस्कृतिक परिवेश से जुड़ी हैं हैवानियत की घटनायें
बच्चियों तक से दुष्कर्म की घटनायें पुलिस व्यवस्था का मामला नहीं है। यह सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश की विसंगतियो की देन है। पुलिस को नोडल बनाकर यह स्थिति बदलने के लिए समाज के श्रेष्ठिजनो को सहभागी बनाकर ऐसा अभियान चलाया जा सकता है जो रचनात्मक उमंग पैदा करके सात्विक परिवेश का निर्माण करे। लगता है कि मुख्यमंत्री और उनकी टीम अभी तक इस दिशा में नहीं सोच पाई है। सोहबत भी व्यक्तियों और संस्थाओं के चरित्र निर्माण में बड़ी भूमिका अदा करती है।
पुलिस की सोहबत हाल के दशकों में गलत काम करके उसकी निजी कमाई में बढ़ोत्तरी करने वालों और जिनमें भावी विधायक मंत्री का चेहरा नजर आता है उन अपराधियो के साथ बढ़ी है। बीमारी के आपरेशन के लिए औजार भी साफ सुथरे होने चाहिए। इसलिए पुलिस में ऐसे सुधारों को लेकर सरकार को नवाचार दिखाना चाहिए था जिसकी झलक मुख्यमंत्री नहीं दे सके हैं।