शनिदेव को न्याय का देवता माना जाता है, इनकी दृष्टि से हर इंसान बचना चाहता है। क्योंकि इनकी दृष्टि जिस भी इंसान पर पड़ती है, उसकी किस्मत मानो उससे रूठ जाती है। लेकिन अगर शनिदेव की बात करें, तो सबसे पहला सवाल यह उठता है कि आखिर शनिदेव की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे वह लोगो के जीवन को प्रभावित करते हैं? अगर आपके भी मन में कुछ ऐसा ही सवाल पैदा हो रहा है, तो चलिए आज हम इसी से जुड़ी बातों पर चर्चा करते हैं। शनि को सौर जगत के नौ गृहों में से सातवां ग्रह माना जाता है। ये फलित ज्योतिष में अशुभ गृह भी माना जाता है।
श्री शनैश्वर देवस्थान के अनुसार शनिदेव की जन्म गाथा या उत्पति के संदर्भ में कई मान्यितायें हैं। इनमें सबसे अधिक प्रचलित गाथा स्कंध पुराण के काशीखण्ड में दी गई है। इसके अनुसार सूर्यदेवता का ब्याह दक्ष कन्या संज्ञा के साथ हुआ। वे सूर्य का तेज सह नहीं पाती थी। तब उन्होने विचार किया कि तपस्या करके वे भी अपने तेज को बढ़ा लें या तपोबल से सूर्य की प्रचंडता को घटा दें। सूर्य के द्वारा संज्ञा ने तीन संतानों को जन्म दिया, वैवस्वत मनु, यमराज, और यमुना। संज्ञा बच्चों से भी बहुत प्यार करती थी। एक दिन संज्ञा ने सोचा कि सूर्य से अलग होकर वे अपने मायके जाकर घोर तपस्या करेंगी और यदि विरोध हुआ तो कही दूर एकान्त में जाकर अपना कर्म करेंगी।
इसके लिए उन्हों ने तपोबल से अपने ही जैसी दिखने वाली छाया को जन्म दिया, जिसका नाम ‘ सुवर्णा ‘ रखा। उसे अपने बच्चोँ की जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा कि आज से तुम नारी धर्म मेरे स्थान पर निभाओगी और बच्चों का पालन भी करोगी। कोई आपत्ति आ जाये तो मुझे बुला लेना, मगर एक बात याद रखना कि तुम छाया हो संज्ञा नहीं यह भेद कभी किसी को पता नहीं चलना चाहिए। इसके बाद वे अपने पीहर चली गयीं। जब पिता ने सुना कि सूर्य का ताप तेज सहन ना कर सकने के कारण वे पति से बिना कुछ कहे मायके आयी हैं, तो वे बहुत नाराज हुए और वापस जाने को कहा। इस पर संज्ञा घोडी के रूप में घोर जंगल में तप करने लगीं। इधर सूर्य और छाया के मिलन से तीन बच्चों का जन्म हुआ मनु, शनिदेव और पुत्री भद्रा (तपती )। इस प्रकार सूर्य और छाया के दूसरे पुत्र के रूप में शनि देव का जन्म हुआ।