पाकिस्तान के साथ 1999 में हुए कारगिल युद्ध में 500 से अधिक भारत के जांबाज वीरों ने अपना बलिदान देकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की थी। इन वीरों में एक नाम परमवीर चक्र विजेता शहीद केप्टन विक्रम बत्रा का भी है। ये वो नाम है जिसको भारत कारगिल का शेर भी कहता है। इसका अर्थ सीधेतौर पर ऐसा वीर है जिसके सामने हर कोई घुटने टेक दे और जो मौत से आंख मिलाने से पीछे न हटे। कारगिल युद्ध में 7 जुलाई 1999 को केप्टन बत्रा महज 24 साल की उम्र में वीरगित को प्राप्त हो गए थे। लेकिन उनकी वीरता की कहानी से आज भी न सिर्फ कारगिल बल्कि पूरा देश और आज की युवा पीढ़ी प्रेरणा लेती है।
1 जून 1999 को केप्टन विक्रम बत्रा की टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया था। यहां पर उन्होंने हंप और राकी नाब को दुश्मन से वापस हासिल किया था। इसके बाद उन्हें केप्टन बनाया गया। उनके ऊपर इस वक्त सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी। ये जिम्मेदारी श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर स्थित सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से वापस लेने की थी। पाकिस्तान की सेना के जवान वहां से भारतीय जवानों की पूरी मूवमेंट को देख रहे थे। उन्हें ऊंचाई पर होने का फायदा हो रहा था। विक्रम बत्रा ने आदेश मिलने के साथ ही अपने साथियों के साथ मंजिल की तरफ कूच कर दिया। रास्ते में कई बाधाएं आईं। दुश्मन लगातार फायरिंग कर रहा था। लेकिन उनकी टुकड़ी भी लगातार हर मुश्किल को पार करते हुए आगे बढ़ रही थी। मंजिल के बेहद करीब पहुंच कर उन्होंने पाकिस्तान की सेना के जवानों पर जबरदस्त हमला किया। उन्होंने खुद घुसपैठियों को खत्म कर दिया था।
20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को उन्होंने इसको अपने कब्जे में लेकर इस पर तिरंगा फहराया। इस जीत की जानकारी उन्होंने अपने रेडियो सेट के जरिए अपने अधिकारियों को दी तो सब बेहद खुश थे। उस वक्त उन्होंने कहा था कि ये दिल मांगे मोर। इसके बाद उनके कहे ये तीन शब्द बार बार जवानों ने दोहराए। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया के जरिए पूरे भारत में छा। इसके बाद ही उन्हें कारगिल का शेर कहा गया। उन्होंने एक बार कहा था कि वे वापस जरूर आएंगे यदि जिंदा नहीं आ सके तो तिरंगे में लिपट कर तो जरूर ही आएंगे।
प्वाइंट 5140 पर कब्जे के बाद उन्हें प्वाइंट 4875 को कब्जे में लेने की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ मिलकर कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। वो जीत के काफी करीब थे लेकिन तभी उनके साथ मौजूद लेफ्टिनेंट नवीन पर हो रही गोलियों की बौछार से उन्हें बचाने के लिए वो उनकी ढाल बन गए। इस दौरान लेफ्टीनेंट नवीन के बुरी तरह जख्मी हो गए। जिस वक्त विक्रम उन्हें बचाने के लिए गोलीबारी से दूर घसीट रहे थे तभी दुश्मन की गोलियां उनके सीने को पार कर गईं। इस अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को परमवीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया जो उनके पिता जीएल बत्रा ने प्राप्त किया।
9 सितंबर, 1974 को मंडी जिले के जोगेंद्र नगर इलाके में पेशे से टीचर गिरधारी लाल बत्रा के घर पर जुड़वा बच्चे पैदा हुए थे। इनका नाम उन्होंने लव और कुश रखा था। इनमें लव थे विक्रम बत्रा। उन्होंने पालमपुर के केंद्रीय विद्यालय से 12 वीं और फिर चंडीगढ़ के डीएवी कालेज बीएससी की थी। सेना उनके दिल में बसती थी। 1996 में इंडियन मिलिट्री अकादमी में मॉनेक शॉ बटालियन में उनका चयन किया गया। एसएसबी इंटरव्यू में उनके साथ कुल 35 लोग चुने गए थे। आईएमए में जाने के लिए उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएशन को भी अधूरा छोड़ दिया था। ट्रेनिंग के बाद उन्हें जम्मू कश्मीर राइफल यूनिट, श्योपुर में बतौर लेफ्टिनेंट नियुक्त किया गया। कुछ समय बाद कैप्टन रैंक दिया गया। उन्हीं के नेतृत्व में टुकड़ी ने 5140 पर कब्जा किया था। 1995 में विक्रम बत्रा को मर्चेंट नेवी से नौकरी का ऑफर आया लेकिन उन्होंने इस नौकरी को ठोकर मारकर सेना में बने रहने का फैसला लिया था।