थायरॉइड एक ऐसा रोग है जो लगभग पूरी तरह से हॉर्मोंस पर निर्भर करता है। हमारे थायरॉइड ग्लैंड्स शरीर से आयोडीन लेकर इन्हें बनाते हैं। ये हारमोन हमारे मेटाबॉलिज्म को बनाए रखने के लिए जरूरी होते हैं। अधिकतर महिलाओं की सेहत के प्रति लापरवाह हो जाती हैं और वे थायरॉयड के लक्षणों को मामूली थकान समझकर अनदेखा कर देती हैं, पर ऐसा करना उचित नहीं है क्योंकि भविष्य में इससे कई स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इस समस्या के बारे में बात करने से पहले यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर थायरॉयड है क्या और यह हमारी सेहत को किस तरह प्रभावित करता है।
थायरॉयड ग्लैंड हमारे गले के निचले हिस्से में स्थित होता है। इससे खास तरह के हॉर्मोन टी-3, टी-4 और टीएसएच (थायरॉयड स्टिम्युलेटिंग हॉर्मोन) का स्राव होता है, जिसकी मात्रा के असंतुलन का हमारी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है। शरीर की सभी कोशिकाएं सही ढंग से काम कर सकें, इसके लिए इन हॉर्मोस की जरूरत होती है। इसके अलावा मेटाबॉलिज्म की प्रक्रिया को नियंत्रित करने में भी टी-3 और टी-4 हॉर्मोन का बहुत बडा योगदान होता है। इसीलिए इनके सिक्रीशन में कमी या अधिकता का सीधा असर व्यक्ति की भूख, वजन, नींद और मनोदशा पर दिखाई देता है।
क्यों होता है थायराइड
आमतौर पर दो प्रकार की थायरॉयड संबंधी समस्याएं देखने को मिलती हैं। पहले प्रकार की समस्या को हाइपोथॉयरायडिज्म कहा जाता है। इस में थॉयरायड ग्लैंड धीमी गति से काम करने लगता है और यह शरीर के लिए आवश्यक हॉर्मोन टी-3, टी-4 का निर्माण नहीं कर पाता, लेकिन शरीर में टीएसएच का स्तर बढ जाता है। दूसरी ओर हाइपर थायरॉयडिज्म की स्थिति में थॉयरायड ग्लैंड बहुत ज्यादा सक्रिय हो जाता है। इससे टी-3 और टी-4 हॉर्मोन अधिक मात्रा में निकल कर रक्त में घुलनशील हो जाता है और टीएसएच का स्तर कम हो जाता है। अब तक हुए रिसर्च में यह पाया गया है कि किसी भी देश की कुल आबादी में से 4 से 10 प्रतिशत लोगों को हाइपोथायरॉयडिज्म और मात्र 1 प्रतिशत लोगों को हाइपरथायरॉयडिज्म की समस्या होती है। ये दोनों ही स्थितियां सेहत के लिए नुकसानदेह हैं। पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को यह समस्या ज्यादा परेशान करती है।
ये हैं 4 बड़े कारण
इस समस्या के सही कारणों के बारे में डॉक्टर और वैज्ञानिक अभी तक किसी खास निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए हैं क्योंकि यह सर्दी-जुकाम की तरह संक्रामक बीमारी नहीं है, न ही इसका संबंध खानपान, प्रदूषण और जीवनशैली आदि से है। चिकित्सा विज्ञान की शब्दावली में इसे ऑटो इम्यून डिजीज कहा जाता है। अर्थात थायरॉयड ग्लैंड से निकलने वाले टी-3, टी-4 हॉर्मोंस और टीएसएच हॉर्मोस के असंतुलन की वजह से शरीर के भीतर अपने आप इसके लक्षण पनपने लगते हैं।
हाइपो-थायरॉयडिज्म के लक्षण
एकाग्रता में कमी, व्यवहार में चिडचिडापन और उदासी, सर्दी में भी पसीना निकलना, अनावश्यक थकान एवं अनिद्रा, तेजी से वजन बढना, पीरियड में अनियमितता, कब्ज, रूखी त्वचा एवं बालों का तेजी से गिरना, मिसकैरेज या कंसीव न कर पाना, कोलेस्ट्रॉल बढाना, हृदय की कार्य क्षमता में कमी, शरीर और चेहरे पर सूजन आदि।
रोग के बचाव एवं उपचार
अगर कोई समस्या न हो तो भी हर स्त्री को साल में एक बार थायरॉयड की जांच जरूर करवानी चाहिए।
अगर कभी आपको अपने भीतर ऐसा कोई भी लक्षण दिखाई दे तो हर छह माह के अंतराल पर थायरॉयड टेस्ट करवाने के बाद डॉक्टर की सलाह पर नियमित रूप से दवा का सेवन करें। इससे शरीर में हार्मोस का स्तर संतुलित रहता है।
कंसीव करने से पहले हर स्त्री को थायरॉयड की जांच करवा के उसके स्तर को नियंत्रित करने की कोशिश करनी चाहिए। गर्भावस्था में इसकी गडबडी से एनीमिया, मिसकैरेज, जन्म के बाद शिशु की मृत्यु और शिशु में जन्मजात मानसिक दुर्बलता की आशंका बनी रहती है।
जन्म के बाद तीसरे से पांचवें दिन के भीतर शिशु का थायरॉयड टेस्ट जरूर करवाना चाहिए।
हाइपर-थायरॉयडिज्म के लक्षण
वजन घटना, तेजी से दिल धडकना, लूज मोशन, ज्यादा गर्मी लगना -हाथ-पैर कांपना, चिडचिडापन और अनावश्यक थकान, पीरियड में अनियमितता आदि।
क्या है उपचार
अगर किसी स्त्री को ऐसी समस्या हो तो डॉक्टर से सलाह के बाद नियमित रूप से दवाओं का सेवन करना चाहिए। अगर समस्या ज्यादा गंभीर हो तो उपचार के अंतिम विकल्प के रूप में आयोडीन थेरेपी का या सर्जरी का इस्तेमाल किया जाता है।
चाहे हाइपो हो या हाइपरथायरॉयडिज्म दोनों ही स्थितियां सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह साबित होती है। इसलिए नियमित जांच और दवाओं का सेवन बेहद जरूरी है।