सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी को एक स्थान से जिलाबदर यानी निकाले जाने का आदेश उसे देश के किसी भी हिस्से में घूमने-फिरने के अधिकार से वंचित करता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी जगह से निकाले जाने का आदेश ‘असाधारण उपाय’ है। सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के जालना जिले से एक व्यक्ति को दो वर्ष के लिए निष्कासित करने के दिसंबर 2020 के आदेश को निरस्त करते हुए कहा कि इस तरह के आदेश का सोच-समझकर व्यावहारिकता के साथ इस्तेमाल करना चाहिए। इस तरह का आदेश एक व्यक्ति को इस अवधि के दौरान अपने घर में रुकने की आजादी पर भी विराम लगाता है। इससे व्यक्ति अपनी आजीविका से भी वंचित हो सकता है। जस्टिस अजय रस्तोगी और अभय एस ओका की पीठ ने एक व्यक्ति को जिलाबदर किए जाने के पिछले साल के आदेश के खिलाफ अपील पर यह फैसला दिया।
बता दें कि जिलाबदर आदेशों में किसी व्यक्ति की कुछ स्थानों पर आवाजाही पर रोक लगाई जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए केवल असाधारण मामलों में ही आवाजाही पर कड़ी रोक लगानी चाहिए।
बांबे हाई कोर्ट ने खारिज की थी याचिका
बांबे हाई कोर्ट ने उक्त आदेश के खिलाफ याचिका खारिज कर दी थी। पीठ ने कहा कि जिलाबदर करने का आदेश जारी करने में ‘दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया गया और इसमें मनमानापन झलकता है।’ यह कानून की नजर में टिक नहीं सकता। शीर्ष अदालत ने कहा, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि किसी को जिले से निकालने का आदेश असाधारण उपाय है। यह आदेश एक नागरिक को संपूर्ण भारतीय क्षेत्र में जाने के मौलिक अधिकार से वंचित करेगा।
क्या है मामला
15 दिसंबर, 2020 को महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम, 1951 की धारा 56(1)(ए)(बी) के तहत जालना निवासी एक व्यक्ति को पांच दिन के भीतर जिला छोड़ने का आदेश दिया गया था। इसी मामले में शीर्ष अदालत ने यह फैसला सुनाया है।