राजा भर्तृहरि ने कहा था कि भोग नहीं भोगे जाते, हम ही भोगे जाते हैं। तप नहीं तपता, हम ही तृप्त होते हैं। काल व्यतीत नहीं होता, हम ही व्यतीत होते जाते हैं। अर्थात् हम सांसारिक विषय भोगों का उपयोग नहीं कर पाए, अपितु उन भोगों को प्राप्त करने की चिन्ता ने हमको भोग लिया। हमने तप नहीं किया, बल्कि आध्यात्मिक, आधिभौतिक और अधिदैविक ताप जीवन भर हमें ही तपाते रहे। भोगों को भोगते-भोगते हम काल को नहीं काट पाए, बल्कि काल ने हमें ही नष्ट कर दिया।
समय अपनी गति से चल रहा है। समय के साथ कदम मिलाकर चलने में मानव जीवन की सार्थकता है। जब ऐसा नहीं कर पाते तो सफलता से दूर हटते जाते हैं। हर सांस के साथ जीवन की एक अमूल्य निधि यानि समय की एक इकाई कम होती जाती है, तब एक दिन यमदूत लेने आ जाते हैं। जब मुड़कर देखते हैं तो मालूम होता है कि हमने कितनी बेदर्दी से समय गंवाया है, उसका सदुपयोग नहीं कर सके। समय जैसी मूल्यावान संपदा का भंडार होते हुए भी हम विनिमय का धन, ज्ञान तथा लोकहित को नहीं पा सके। समय का सदुपयोग करने में समर्थ न होने पर समय हमें ही खर्च कर देता है।
हममें से बहुत से लोग अपनी इस प्राकृतिक धरोहर, समय का समुचित उपयोग नहीं करते। बचपन में इतना ज्ञान नहीं होता कि समय का मूल्य समझें। एक दिन यौवन आ खड़ा होता है। वह यौवन समय के बहुमूल्य वरदान के रूप में मिलता है। इस यौवन काल में हम बहुत से काम कर सकते हैं। पर इसे निर्दयता से खर्च कर देने पर बुढ़ापा अपनी कमजोर टांगों व धुंधली आंखों से हमारा स्वागत करता है। तब हम चौंक पड़ते हैं, निराश हो जाते हैं और सिर पर हाथ रखकर चिन्ताओं से सागर में डूब जाते हैं।
समय का किस प्रकार किस प्रयोजन से उपभोग किया गया इसी का लेखा-जोखा जीवन का मूल्यांकन प्रस्तुत करता है।जो समय का महत्व समझ सके और उसके सदुपयोग के लिये जागरुकता के साथ तत्पर हो गया, समझना चाहिये कि उसे जिन्दगी मिल गयी।