कुछ शब्‍दों में नहीं बांधी जा सकती है तीर्थराज प्रयाग की पौराणिकता, यही है इसकी खासियत

इन दिनों तीर्थराज प्रयाग खूब चर्चा में है। इसकी वजह पहली तो अगले वर्ष होने वाले कुंभ मेले के कारण, दूसरी इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करने की चर्चा के कारण है।

प्रयाग क्षेत्र को त्रिवेणी नाम से भी जाना जाता है, यह नाम बताता है कि यहां तीन नदियों का संगम है। यहीं भारद्वाज ऋषि का आश्रम है, अत्रि मुनि और अनुसुइया का निवासस्थल है तथा अक्षय वट वृक्ष है। यहीं आदिशंकराचार्य से शास्त्रार्थ के बाद कुमारिल भट्ट ने प्रायश्चित किया। यहीं नागवासुकी और तक्षक नागों के मंदिर हैं। अब से करीब दो हजार साल पहले यही गुप्तकाल की सत्ताशक्ति का केंद्र रहा, करीब सवा चार सौ साल पहले बना अकबर का किला है और यहीं से अंग्रेजों ने उत्तर भारत पर शासन किया। यह भू-भाग हिंदुस्तान की दो पवित्र नदियों गंगा-यमुना और अदृश्य नदी सरस्वती के मिलन स्थल के पश्चिमी हिस्से के दोआब में बसा है। इसके दक्षिण में अरैल यानी यमुनापार विंध्य पर्वत श्रंखला में बुंदेलखंड की ऊंची-नीची पथरीली भूमि है। पूर्व-उत्तर में यानी गंगापार मैदानी भूमि पर प्रतिष्ठानपुर स्थित है, जिसे आजकल झूंसी के नाम से जाना जाता है। पश्चिम में गंगा-यमुना के बीच की भूमि में वत्स प्रदेश की राजधानी कड़ा और बुद्ध-जैन की तपोस्थली कौशांबी है।

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