आलोचना से घिरे पेरिस समझौते को गलत बताने वाले ट्रंप, भारत को बताया था वजह

नई दिल्‍ली। पर्यावरण और धरती के बढ़ते तापमान को लेकर चिंतित भारत जहां बार-बार पेरिस जलवायु सम्‍मलेन (COP-21) के तहत हुए समझौते को लागू करने की मांग करता रहा है| वहीं इसमें शामिल अमेरिका ने इससे अलग होकर सभी देशों को जोरदार झटका दिया है। इसके पीछे अमेरिका की वह दादागिरी भी साफतौर पर झलकती है जिसके तहत वह हमेशा से ही अपने ऊपर किसी भी तरह से प्रतिबंध लगाने के खिलाफ रहा है। यहां पर यह बात भी ध्‍यान देने वाली है कि पर्यावरण और धरती के बढ़ते तापमान के पीछे विश्‍व के विकसित देश कहीं भी पीछे नहीं हैं। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में इनकी भी भूमिका कोई कम नहीं रही है। लेकिन विकसित देश बार-बार भारत समेत अन्‍य विकासशील देशों पर इसका ठीकरा फोड़ते आए हैं।
आलोचना से घिरे पेरिस समझौते को गलत बताने वाले ट्रंप, भारत को बताया था वजह

चीन-भारत पर सख्‍ती न करने के खिलाफ ट्रंप

अमेरिका के राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप ने पेरिस जलवायु समझौते से यह कहते हुए हाथ खींच लिए हैं कि इस समझौते में भारत और चीन को लेकर कोई सख्‍ती नहीं दिखाई गई है। अपने बयान में ट्रंप चीन और भारत जैसे देशों को पेरिस समझौते से सबसे ज्यादा फायदा होने की दलील दी है। उनका कहना है कि यह समझौता अमेरिका के लिए अनुचित है क्योंकि इससे उद्योगों और रोजगार पर बुरा असर पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि भारत को पेरिस समझौते के तहत अपनी प्रतिबद्धताएं पूरी करने के लिए अरबों डॉलर मिलेंगे और चीन के साथ वह आने वाले कुछ वर्षों में कोयले से संचालित बिजली संयंत्रों को दोगुना कर लेगा और अमेरिका पर वित्तीय बढ़त हासिल कर लेगा।

समझौते से पीछे हटने के लिए ट्रंप की आलोचना

फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्युएल मैक्रान ने डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते से पीछे हटने को उनकी ऐतिहासिक भूल करार दी है। उन्‍होंने जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले अमेरिकी वैज्ञानिकों को फ्रांस में आकर काम करने के लिये आमंत्रित किया है। एक इंटरव्यू में उन्‍होंने कहा कि ट्रंप ने अपने देश के हितों के लिए बहुत बड़ी भूल की है। उन्‍होंने ट्रंप पर दुनिया को अनदेखा करने का भी आरोप लगाया है। उन्होंने 2015 के समझौते को फिर से तैयार करने के ट्रंप के विचार का जिक्र करते हुये कहा, हम किसी भी तरह से कम महत्वाकांक्षी समझौते पर बातचीत करने के लिये राजी नहीं होंगे।

भारत का नाम लेने के पीछे वजह

उनके इस बयान के पीछे कई मायने हैं जिसको समझ लेना बेहद जरूरी है। दरअसल, भारत विश्व में ग्रीन हाउस गैसों का उत्‍सर्जन करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है। वहीं इस कड़ी में चीन पहले नंबर पर है। भारत विश्व के 4.1 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। यह आंकड़े अपने आप में बेहद चिंताजनक हैं। वर्ष 2016 में किए गए इस समझौते के तहत धरती के तापमान में हो रही बढ़ोतरी को दो डिग्री सेल्सियस से घटाकर 1.5 डिग्री सेल्सियस तक लाने का लक्ष्‍य रखा गया था। इस समझौते पर अप्रैल को 175 देशों ने न्यूयार्क में हस्ताक्षर किए थे।

सबसे बड़ा विवाद का विषय

पिछले 21 वर्षों से सीओपी बैठकों में विवाद का सबसे बड़ा विषय सदस्य देशों के बीच जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी और इसके आर्थिक बोझ का रहा है। विकसित देश भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर कार्बन उत्‍सर्जन में वृद्धि करने का दोष लगाकर अपनी जिम्‍मेदारी से पल्‍ला झाड़ते रहे हैं। वहीं दूसरी ओर आज भी विकासशील और विकसित देशों के बीच प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में बड़ा अंतर है। भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों से प्रभावित होने वाले देशों में से एक है। साथ ही कार्बन उत्सर्जन में कटौती का असर भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं पर सबसे अधिक पड़ेगा। साल 2030 तक भारत ने अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिये कृषि, जल संसाधन, तटीय क्षेत्रों, स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन के मोर्चे पर भारी निवेश की जरूरत है। पेरिस समझौते में भारत विकासशील और विकसित देशों के बीच अंतर स्थापित करने में कामयाब रहा है। 

ओबामा ने समझौते पर जताई थी खुशी

2016 के पेरिस जलवायु सम्‍मेलन के दौरान तत्‍कालीन अमेरिकी राष्‍ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के बारे में पेरिस समझौता भावी पीढि़यों को सुरक्षित वातावरण उपलब्‍ध कराने की दिशा में  महत्‍वपूर्ण कदम होगा। इससे पृथ्‍वी के बढ़ते तापमान के दुष्‍परिणामों को रोकने में मदद मिलेगी। इस समझौते  का कुल 72 देशों ने अनुमोदन किया था जो 56 प्रतिशत वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। इस समझौते पर यूएन महासचिव ने भी खुशी का इजहार किया था।

गांधी जयंती के मौके पर भारत ने की थी शुरुआत

भारत ने गांधी जयंती के अवसर पर दो अक्तूबर को पेरिस जलवायु समझौते का अनुमोदन किया था। इसके साथ ही वह जलवायु परिवर्तन पर अनुमोदन संबंधी अपना दस्तावेज जमा कराने वाला 62वां देश बन गया  था।  इस सम्‍मेलन के दौरान भारत भारत समेत आस्ट्रिया, बोलविया, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, हंगरी, माल्टा, नेपाल, पुर्तगाल और स्लोवाकिया के साथ-साथ यूरोपीय संघ ने भी यून महासचिव को अपने अनुमोदन संबंधी दस्तावेज सौंपे थे। 

सीओपी-21 के मायने 

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के ढांचे यानी यूएनएफसीसीसी (UNFCCC) में शामिल सदस्यों का सम्मेलन कान्‍फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) कहलाता है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को स्थिर करने और पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाने के लिये सन 1994 में इसका गठन हुआ था। वर्ष 1995 से सीओपी के सदस्य हर साल मिलते रहे हैं। साल 2015 इसके सदस्‍य देशों की संख्या 197 थी। दिसंबर 2015 में सम्‍मेलन के दौरान जिन चीजों पर सहमति बनी और जो एक दस्‍तावेज के रूप में सभी देशों के सामने आई थी उसको ही पेरिस समझौते का नाम दिया गया था।

ट्रंप ने क्‍यों लिया भारत का नाम

18 पन्नों का एक दस्‍तावेज है पेरिस समझौता

यह 18 पन्नों का एक दस्‍तावेज है जिसपर अक्टूबर, 2016 तक 191 सदस्य देशों ने हस्‍ताक्षर किए थे। पेरिस संधि पर शुरुआत में ही 177 सदस्यों ने हस्ताक्षर कर दिये थे। ऐसा पहली बार हुआ जब किसी अन्तरराष्ट्रीय समझौते के पहले ही दिन इतनी बड़ी संख्या में सदस्यों ने सहमति व्यक्त की। इसी तरह का एक समझौता 1997 का क्योटो प्रोटोकॉल है, जिसकी वैधता 2020 तक बढ़ाने के लिये 2012 में इसमें संशोधन किया गया था। लेकिन व्यापक सहमति के अभाव में ये संशोधन अभी तक लागू नहीं हो पाए हैं।

विकासशील देशों की चिंताओं का भी रखना होगा ख्‍याल

इस पूरे मसले पर बात करते हुए सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की प्रमुख सुनीता नारायण ने कहा कि ऊर्जा के लिए कोयले के उपयोग को लेकर भारत पर सवाल खड़े करने वाले विकसित देश भी इसका लगातार उपयोग कर रहे है। लिहाजा भारत पर सवाल उठाना जायज नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि वि‍कसित देश ऊर्जा के लिए कोयले के इस्‍तेमाल से पीछे हट रहे हों। उनका कहना है कि पेरिस सम्‍मेलन में हुए समझौते के बाद यह जरूरी है कि इसके लिए बजट का आवंटन भी सही पैमाने पर किया जाए। इसके अलावा इसमें विकासशील देशों की चिंताओं का भी ध्‍यान रखना चाहिए ताकि वह विकास की ओर आगे बढ़ सकें।

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