भगवान विष्णु के वराह अवतार द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष के वध के पश्चात ब्रह्मा से वरदान पा उसके बड़े भाई हिरण्यकशिपु के अत्याचार हद से अधिक बढ़ गए। सारी सृष्टि त्राहि-त्राहि करने लगी। जहाँ एक ओर हिरण्यकशिपु संसार से धर्म का नाश करने पर तुला हुआ था, वही उसका अपना पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु की भक्ति में लीन था। हिरण्यकश्यप जब किसी भी तरह प्रह्लाद को नहीं समझा सका तो उसने उसे कई बार मारने का प्रयत्त्न किया किन्तु प्रह्लाद हर बार भगवान विष्णु की कृपा से बच गया। यहाँ तक कि इस प्रयास में उसकी बहन होलिका भी मृत्यु को प्राप्त हो गयी। अंत में जब वो स्वयं प्रह्लाद को मारने को तत्पर हुआ तो अपने भक्त की रक्षा के लिए भगवान विष्णु स्वयं नृसिंह अवतार में प्रकट हुए।
किन्तु उस समय तक भगवान नृसिंह का क्रोध सारी सीमाओं को पार कर गया था। साक्षात भगवान शंकर को सामने देख कर भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ बल्कि वे स्वयं भगवान शंकर पर आक्रमण करने दौड़े। महादेव ने नृसिंह को समझने का प्रयास किया कि उनके अवतार का आशय पूर्ण हो गया है और इसीलिए उन्हें अपना क्रोध त्याग देना चाहिए किन्तु वे उनका क्रोध शांत करने में असफल रहे। उधर नृसिंहदेव की क्रोध की ऊष्मा बढ़ती ही जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि उनके क्रोध की अग्नि में संसार भस्म हो जाएगा। अतः कोई और चारा ना देख कर भगवान शिव ने भी एक महाभयंकर विकराल शरभ का रूप धारण किया। उनके आठ हाथ थे और वे सिंह, पक्षी एवं गज का मिला जुला स्वरुप थे।
अब तो नारायण के उस अतिभयंकर नृसिंह स्वरुप के सामने महाकाल के तेजस्वी और विकराल शरभ को देख कर स्वयं ब्रह्मा भी चिंतित हो गए। उन्हें लगा कि इन दो महान अवतारों के टकराव से उनकी सृष्टि का ही नाश हो जाएगा। उधर दोनों महाशक्तियों में भयानक युद्ध प्रारम्भ हो गया जो १८ दिनों तक चला। दोनों महाभयंकर थे, दोनों महाशक्तिशाली थे किन्तु जहाँ एक और भगवान नृसिंह अपनी चेतना की सीमा को पार कर चुके थे, वही भगवान शरभ अभी भी अपनी पूर्ण चेतना में थे। जब उन्होंने देखा कि दोनों के युद्ध से सृष्टि का नाश हो रहा है तो विवश होकर उन्होंने भगवान नृसिंह को को अपनी पूंछ में लपेट लिया और खींच कर पाताल लोक में ले गए। भगवान नृसिंह ने उनकी पकड़ से छूटने का बहुत प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हो पाए।
बहुत काल तक शरभ ने नृसिंह को उसी प्रकार अपनी पूँछ में जकड कर रखा। अपनी सारी शक्तियों और प्रयासों के बाद भी भगवान नृसिंह उनकी पकड़ से छूटने में सफल नहीं हो पाए तो अंततः शक्तिहीन होकर उन्होंने शरभ रूप में भगवान शंकर को पहचाना। तब कही जाकर उनका क्रोध शांत हुआ। तब भगवान ब्रह्मा और नारायण के आग्रह पर शरभ रूपी भगवान शंकर ने उन्हें मुक्त कर दिया। कहा जाता है कि अपनी लीला समाप्त करने से पहले नृसिंहदेव ने भगवान शिव से अपने चर्म को आसन के रूप में प्रयोग करने की प्रार्थना की और भगवान शिव जिस सिंह आसन पर विराजमान होते हैं वो भगवान नृसिंह का ही चर्म है। इस प्रकार प्रह्लाद के साथ-साथ समस्त देवताओं को भी एक साथ दो महान अवतारों के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ।