पश्चिम बंगाल के मशहूर पर्वतीय पर्यटन केंद्र दार्जिलिंग को पहाड़ियों की रानी कहा जाता है। विधानसभा चुनावों के मौके पर राज्य के बाकी हिस्सों में जहां राजनीति और मौसम दोनों का पारा लगातार चढ़ रहा है वहीं इस शहर में अब भी मौसम काफी खुशनुमा है। रातें सर्द और दिन खुशगवार हो रहे हैं। लेकिन पहाड़ी रास्तों की तरह यहां के राजनीतिक समीकरण फिलहाल टेढ़े-मेढ़े या कहें तो उलझे हुए नजर आ रहे हैं। कहा जाता है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। लेकिन इस पर्वतीय इलाके में यह कहावत भी उल्टी पड़ती नजर आ रही है। यहां दो दुश्मनों का एक ही कॉमन दोस्त है।
यह दोनों दुश्मन हैं गोरखा मुक्ति मोर्चा के विमल गुरुंग और विनय तामंग गुट और उनकी कॉमन दोस्त है ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस। तृणमूल कांग्रेस ने इलाके की तीन विधानसभा सीटें मोर्चे के लिए छोड़ी हैं। लेकिन मोर्चे के दोनों गुट इन पर मुकाबले के लिए कमर कस रहे हैं। इसी ऊहापोह में अब तक उम्मीदवारों की सूची भी घोषित नहीं की जा सकी है। ममता अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद इन दोनों दुश्मनों के बीच सुलह कराने में नाकाम रही हैं। इस पर्वतीय क्षेत्र में पांचवें चरण में 17 अप्रैल को मतदान होना है।
मोर्चा के तामंग गुट उससे पहले 21 मार्च को ही अपने उम्मीदवारों का एलान कर दिया है। विमल गुरुंग गुट भी जल्दी ही इन तीनों सीटों के लिए अपने उम्मीदवारों का एलान करेगा। गुरुंग दावा करते हैं कि वे इलाके की तीनों सीटें जीतने के साथ ही डुआर्स और तराई इलाके की कम कम 15 सीटों के नतीजों को भी प्रभावित करेंगे।
मोर्चे के दोनों गुटों के मैदान में उतरने से स्थानीय लोग भी असमंजस में हैं। दार्जिलिंग बस स्टैंड के पास परचून की दुकान चलाने वाले नरेन थापा कहते हैं, “स्थानीय नेताओं और क्षेत्रीय दलों में एकजुटता नहीं होने की वजह से ही तमाम राजनीतिक दल अब तक पहाड़ के लोगों और संसाधनों का दोहन करते रहे हैं। मोर्चा अब तक भाजपा को समर्थन देता रहा था। इस बार एकजुट होकर लड़ने की स्थिति में शायद इलाके में विकास की गति तेज हो सकती थी।”
एक रिटायर्ड शिक्षक मोहन गुरुंग कहते हैं, “इलाके के लोग अभी तमाम विकल्पों पर विचार कर रहे हैं। हमारा वोट ऐसे उम्मीदवार को जाएगा जो जीतने में सक्षम हो। मोर्चा की आपसी फूट के कारण लोगों के मन में असमंजस है। कुछ दिनों बाद शायद तस्वीर साफ हो।”
यहां राजनीतिक समीकरणों का उलझाव समझने के लिए चार साल पीछे लौटना होगा। वर्ष 2017 में अलग गोरखालैंड की मांग हुए हिंसक आंदोलन और 104 दिनों के बंद के बाद गुरुंग के भूमिगत होने की वजह से मोर्चा दो-फाड़ हो गया था। एक गुट की कमान विनय तामंग ने संभाली और उन्होंने ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के प्रति समर्थन जताया था। गुरुंग गुट और जीएनएलएफ ने वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा उम्मीदवार राजू बिस्टा को समर्थन दिया था।
लेकिन इस बार इलाके में राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं। करीब तीन साल बाद भूमिगत रहने के दौरान गुरुंग का भाजपा से मोहभंग हो चुका है। भगवा पार्टी ने अपने चुनावी वादों पर अमल नहीं किया। नतीजतन बीते साल के आखिर में गुरुंग अचानक सामने आए और तृणमूल कांग्रेस को समर्थन देने का एलान कर दिया।
विमल गुरुंग के ममता के खेमे में जाने से भाजपा को झटका तो लगा है। लेकिन उसकी निगाहें मोर्चा के दोनों गुटों की प्रतिद्वंद्विता पर टिकी हैं। मोर्चा के दोनों गुटों की तनातनी ने इलाके में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को भी असमंजस में डाल दिया है। पार्टी के एक नेता बताते हैं कि उनको दीदी के निर्देश का इंतजार है। उसके बाद ही तय होगा कि किस गुट को समर्थन देना है।
विमल गुरुंग के समर्थन से ही वर्ष 2009 से लगातार तीन बार भाजपा दार्जिलिंग लोकसभा सीट जीत चुकी है। पार्टी ने वर्ष 2019 में दार्जिलिंग विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी विनय तामंग को करीब 46 हजार वोटों से हरा कर कब्जा कर लिया था। जबकि उससे पहले वर्ष 2011 और 2016 में अविभाजित मोर्चा के उम्मीदवारों ने यह सीट जीती थी।
मोर्चा के दोनों गुटों में एक बात कॉमन है। वह यह है कि दोनों भाजपा के खिलाफ हैं। लेकिन इलाके के लोगों का मानना है कि इससे भगवा खेमे को फायदा हो सकता है। भाजपा को पहले से ही जीएनएलएफ का समर्थन हासिल है।
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