कोविड-19 को लेकर पहले सतर्क थे लोग, पर अब बरती जा रही है लापरवाही; जानिए खास सलाह

कोविड-19 के शुरुआती समय में डर और सुरक्षा को लेकर जो सजगता देखी गई, वह अब संक्रमण के तेजी से बढ़ते दौर में कम क्यों होती जा रही है? जब सही तरीके से मास्क लगाने, भीड़ में सावधानी और समुचित शारीरिक दूरी को लेकर अधिक सावधानी बरतने की जरूरत है, तो हम कहीं अधिक लापरवाह तो नहीं हो गए हैं? विशेषज्ञ इसे मनोवैज्ञानिक समस्या बताते हैं। खतरे को मानने, स्वीकार करने से इंकार कर देना और इसके पक्ष में जबरन तर्क गढ़ देना समस्या को बढ़ा ही रहा है। ऐसे में कैसे बना रहे संयम और क्या हों समुचित उपाय, विशेषज्ञों से बातचीत के आधार पर विश्लेषण…

क्‍या सचमुच कोरोना वायरस का उतना खतरा है, जितना खबरों में बताया जा रहा है!’ दफ्तर से लौटते हुए सब्जी खरीदने रुकीं लीना ने सब्जी वाले से जब यह सुना तो एकबारगी चौंक गईं। कोरोना महामारी के कारण देश-दुनिया में इतनी तबाही होने के बाद भी इसे लेकर लोगों के बीच इस तरह का असमंजस और आशंका उन्हें परेशान कर रही थी। घर में कदम रखते ही उन्होंने सबसे यह बात साझा की। अगले दिन कार्यालय में सहयोगियों को भी बताई। पता चला कि ज्यादातर लोगों का अनुभव यही है। लगभग सबने यही कहा कि कोविड-19 की सच्चाई स्वीकारने में वास्तव में अब भी लोगों को दिक्कत हो रही है।

डर के बीच जिंदगी से प्यार : ‘अनलॉक’ हुई जिंदगी में मास्क पहनने से लेकर भीड़ में जाने के लिए जरूरी नियमों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है, तो इसकी वजह भी कहीं न कहीं इसी से जुड़ी है। हो सकता है कि ये बातें कुछ समय के लिए तसल्ली देती हों, पर जो इससे प्रभावित होकर बाहर आ चुके हैं, जरा उनसे पूछिए। जिनका कोई अपना इसका शिकार हो चुका है, जरा उनकी पीड़ा समझने की कोशिश कीजिए। आज जब कोरोना से देश में रोजाना हजारों मौतें हो रही हैं, सब कुछ खुल जाने के बावजूद जनजीवन बेहाल है। जिंदगी हर पल संक्रमण के खतरे की आशंका से जूझ रही है, तो क्या हम सभी को इस डर के बीच ही खुद को सुरक्षित रखना जरूरी नहीं है। इस बारे में वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक विचित्रा डर्गन आनंद कहती हैं, ‘यदि आप बाहर निकलते हैं और संक्रमण का डर है तो यह डर अच्छा है। यह बताता है कि आपको अपनी जिंदगी और अपनों से प्यार है। यही डर खुद को और अपनों की जिंदगी को सुरक्षित रखने के लिए प्रेरित भी करता है।’

भारी पड़ सकती है सोच: जानी-मानी मनोवैज्ञानिक डॉक्टर अरुणा ब्रूटा के अनुसार, बाहर निकलने के बाद बरती जाने वाली असावधानी इंसान की मौलिक प्रवृत्ति से जुड़ी हो सकती है। इंसान एक ऐसा सामाजिक प्राणी है, जो अधिक समय तक नियमों में बंधे रहना और अलग- थलग रहना पसंद नहीं कर पाता। वह अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं कि कैसे लोग वीडियो सेशन के बजाय उनसे मिलकर सेशन लेने को प्राथमिकता देते हैं। इसके लिए वे समझाती भी हैं, पर कम ही लोग इसे मानते हैं। हालांकि सभी लोग ऐसे नहीं हैं। कुछ लोग जहां समय की इस मांग यानी शारीरिक दूरी का पालन, सही तरीके से मास्क लगाने आदि को नहीं भूलते, वहीं दूसरी ओर इसके उलट विचार वाले भी हैं। चुनौती ऐसे ही लोगों को संभालने की है।

डॉक्टर ब्रूटा कहती हैं, ‘दरअसल, नियमों की धज्जियां उड़ाने वाले लोगों में किसी तरह का फोबिया या डर नहीं पाया जाता। उन्हें समस्या को हल्के में लेने की आदत होती है। ऐसे लोग खुद को तमाम तरह के तर्क देकर अपने अहं को संतुष्ट करते रहते हैं। लॉकडाउन में ढील, अनलॉक होने के बाद कोरोना से ठीक होने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी आदि को देखकर वे अपनी बात की पुष्टि करते रहते हैं।’ डॉक्टर ब्रूटा के अनुसार, यह बात अलग है कि नकारात्मक मनोदशा से बचे रहने में इस तरह की सुरक्षात्मक सोच से उन्हें मदद मिल सकती है, पर यह अधिक बढ़ जाए तो इस तरह की सोच घातक भी बन जाती है।

मंजिल कब तुरंत मिली है!: इस महामारी की शुरुआत में लोग अचानक सहम गए थे। बचाव के लिए हमारे पास सूचनाएं थीं, पर सब कुछ जैसे अंधेरे में तीर चलाने जैसा था। अब समय के साथ जानकारियां बढ़ीं, वैज्ञानिकों-चिकित्सकों की मदद से हम पहले से कहीं बेहतर आश्वस्त हो सके हैं यानी जिंदगी के साथ-साथ चलते हुए हमने जाना कि अब मास्क और दो गज की दूरी ही कोरोना वायरस से लड़ाई में सबसे सशक्त हथियार है। जानी-मानी क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. प्रेरणा कोहली कहती हैं, ‘अब आपदा ने भयानक रूप ले लिया है। यदि इसे नकारेंगे तो मुसीबत हमें ही झेलनी होगी। आपने इतने दिन धीरज रखा है तो बेहतरी के लिए और भी संयम रखने का संकल्प तो लेना ही होगा। जिंदगी को यूं खतरे में न डालें। ऐसा करने पर क्या पता परेशानियां पहले से कहीं अधिक बढ़ जाएं और हमें और अधिक दिक्कतें उठानी पड़ें।’

डॉक्टर कोहली के अनुसार, ‘हर आपदा के बाद जिंदगी दोबारा उठ खड़ी होती है। इस बार भी यही होगा, पर अधीरता से बात नहीं बनेगी। समय पर ही सब होता है। यह परिपक्वता हमें पैदा करनी ही होगी। मंजिल कभी आसानी से नहीं मिलती।’ वह आगे कहती हैं, ‘सच्चाई जानने के बाद भी सब ठीक है, कहकर खुद को आश्वस्त करने की मनोदशा आपको बेशक डर या चिंताओं से दूर ले जाए, लेकिन इससे खतरा टल तो नहीं जाएगा।’

डॉक्टर ब्रूटा बताती हैं कि ज्यादातर लोगों की बेसब्री का आलम यह है कि वे यह भूल गए हैं कि इस समय हमें पहले अपनी सुरक्षा के लिए सावधान होना है। पर ऐसा लगता है कि अनलॉक के कारण वे इस भ्रम में हैं कि अब यह जरूरी नहीं। सड़क पर पहले जैसी भीड़, वही धक्का- मुक्की नजर आती है। उनके अनुसार, यदि लोगों में अधिक संक्रमण फैल रहा है तो इसमें इसी प्रकार की लापरवाही की बड़ी भूमिका होती है। क्या आप खुद की सोच के कारण अपने साथ-साथ औरों को भी खतरे में डालना चाहेंगे?

मुसीबत में डाल सकती है इस तरह की सोच…

  • बड़े-बूढ़ों का है संकट, हमें संक्रमण होगा तो भी खतरा ज्यादा नहीं
  • मास्क है पास में तो डरना कैसा
  • हम अच्छी इम्यूनिटी वाले हैं, संक्रमण से बच जाएंगे
  • डेंगू-चिकनगुनिया आदि से भी तो ठीक हो जाते हैं लोग, कोरोना से भी हो जाएंगे
  • हमें अस्पताल में दाखिल होने की जरूरत नहीं होगी। घर पर ही कुछ दिन रहेंगे, तो ठीक हो जाएंगे
  • कुछ हुआ भी तो हमारे पास उपलब्ध चिकित्सकीय सुविधाएं संभाल लेंगी

क्या करें, क्या न करें

  • खांसी-जुकाम-बुखार चाहे जिस कारण से हो, घर से बाहर न निकलें
  • दिनचर्या को लेकर अब भी ढिलाई न बरतें। सोने-जागने का समय तय हो
  • मास्क लगाने और दो गज की दूरी, इन दो के प्रति हमेशा सतर्क रहें
  • कुछ समय रोजाना केवल अपने लिए निकालना चाहिए
  • उन सभी नकारात्मक चीजों, खबरों आदि से दूर रहें जो आपको हताश व निराश कर सकती हैं
  • खतरा है तो समाधान भी है, इस बात को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए
  • हॉबी या जो काम पसंद हो, उसे जरूर समय दें। संगीत, लेखन या किताब पढ़ना जारी रहे
  • शोध बताते हैं कि लोगों की मदद करना और योग आपकी चिंता व तनाव को कम करने में अधिक मददगार है
  • एंग्जायटी में काउंसलर की मदद लेने से संकोच नहीं करनी चाहिए

‘अनलॉक’ से भ्रमित न हों, सुरक्षा का ध्यान रखे: इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. आशीष सक्सेना ने बताया कि महामारी से कैसे बचना है, इस बारे में पिछले कुछ महीनों में लोगों ने खुद को प्रशिक्षित करने में समझदारी दिखाई है। पर ज्यादातर लोग यदि शारीरिक दूरी की परवाह नहीं करते हैं, मास्क का मखौल उड़ाते हैं, तो इसका अर्थ है कि वे ‘सामाजिक नागरिकता’ का मतलब नहीं जानते यानी अपनी गलत व भ्रामक सूचनाओं व सोच की खातिर अपने साथ-साथ दूसरों का जीवन भी खतरे में डाल देते हैं। हालांकि इसके लिए केवल जुर्माने आदि को कड़ाई से लागू करना ही काफी नहीं, बल्कि बड़े स्तर पर जागरूकता लाने की जरूरत है। आर्थिक प्रक्रिया को सुचारु करने के लिए ‘अनलॉक’ जरूरी है, लेकिन ऐसा नहीं है कि महामारी के प्रभाव को कम मान कर आप बेफिक्र हो जाएं।

वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डॉ. अरुणा ब्रूटा ने बताया कि कोरोना वायरस फेफड़े को बुरी तरह प्रभावित करता है। क्या आप जिंदगी भर के लिए कोई ऐसी मुसीबत मोल लेना चाहेंगे, जो हमेशा के लिए आपके फेफड़े और सोचने-समझने की प्रक्रिया को कमजोर कर दे। जब दिमाग को ऑक्सीजन की सही आपूर्ति ही नहीं होगी तो जाहिर है आपकी विचार प्रक्रिया प्रभावित होगी। आपका निर्णय प्रभावित होगा यानी एक स्वस्थ जिंदगी के बजाय हमेशा बीमार बने रहने का खतरा। क्या आप ऐसी भयंकर स्थिति के लिए तैयार हैं?

वरिष्ठ क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. प्रेरणा कोहली ने बताया कि यदि हमारे आसपास सब कुछ अच्छा नहीं, तो मन पर असर पड़ता ही है। पर जीवन अनमोल है। इसे बचाने के लिए हमें थोड़ी परेशानी भी झेलनी पड़े तो इससे परहेज नहीं करना चाहिए। मास्क लगाने और दूरी बरतने से जब हम सुरक्षित रह सकते हैं तो यह इतना भी कठिन नहीं। सच्चाई को स्वीकार करें। लंबे समय से एक जैसी बंधी दिनचर्या के कारण थकना स्वाभाविक है। पर एंग्जायटी ज्यादा न हो, बस इसका ध्यान रखना है।

सावधानी से अधिक जरूरी है आत्म ज्ञान : भले ही आप सर्वगुणी हो जाइए, अहंकार को जीत लीजिए, परिणाम के प्रति चिंता से मुक्‍त हो जाएं, इसके बावजूद इनके हमले होते रहेंगे। थोड़ी देर के लिए लगे कि हमने इन गुणों को जीत लिया, तब भी जागृत रहने की जरूरत है। समुद्र का पानी पूरे वेग से घुसकर जिस तरह खाड़ियां बना लेता है, उसी तरह हमारे मानवीय विकार के जोरदार प्रवाह हमारी मनोभूमि में प्रवेश कर खाडि़यां बना लेते हैं। इसलिए जरा भी छिद्र न रहने पाए। इसके लिए पक्का  इंतजाम और पहरा रखना होगा। वैसे, चाहे जितनी सावधानी रखें, दक्षता रखें, जब तक आत्‍मज्ञान नहीं हुआ है, आत्‍मदर्शन नहीं हुआ है, तब तक समझें कि खतरा बना रहेगा।

 

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