कोरोना संक्रमण काल का असर पर्वों के उल्लास पर भी पड़ा है। हर साल यहां के कारीगर दशहरे पर रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले बनाने पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड तक जाते थे, लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। बाहरी राज्यों के रामलीला आयोजकों ने इस बार संपर्क नहीं किया है। 50 साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि दशहरा पर्व पर पुतले बनाने वाले मुस्लिम परिवार में मायूसी हैं।
कस्बे के मोहल्ला तीरग्रान रामलीला के पुतले बनाने के लिए जाना जाता है। करीब 50-55 साल से शब्बीर का परिवार पुतले बनाने का कार्य करता है। फिलहाल तीसरी पीढ़ी इस कार्य में जुटी है। शब्बीर के सात पुत्र लियाकत, रियासत, इरफान, शराफत, शमीम, नसीम, शहजाद और उनके पौत्र समेत तीन दर्जन सदस्य इस धंधे में जुटते थे। ऑर्डर समय से पूरा करने के लिए जन्माष्टमी से ही पुतले तैयार करने शुरू कर दिए जाते थे। पुतलों के ढांचे में लगने वाली सामग्री तैयार कर लेते थे।
पुश्तैनी काम में जुटे मोहम्मद इंतजार बताते हैं कि पिछले साल रुड़की में दो, सहारनपुर के पांच, लुधियाना के छह, मुजफ्फरनगर के दो, चंडीगढ़ से 12 एवं चरथावल एक और कई शहरों में सैकड़ों पुतले बनाने के ऑर्डर मिलते थे। लेकिन इस बार रामलीला आयोजकों ने कोई संपर्क नहीं किया। एक पुतले की कीमत करीब 40 हजार रुपये होती है। चरथावल के पुतले रामलीला मैदानों में सजाते थे।
कारीगर लियाकत अली ने बताया कि उनके परिवार को इस धार्मिक कार्य को करते हुए पांच दशक से ज्यादा बीत गए। इरफान बताते है उनके द्वारा तैयार पुतले सहारनपुर के नानौता, शामली के जलालाबाद, थानाभवन, लुधियाना, जमारपुर कॉलोनी लुधियाना, जगरावा जालंधर और हड्डा बस्ती में 90 से 120 फीट तक के तैयार पुतले लगते थे। परिवार के सदस्यों को अलग-अलग प्रांतों में प्रवास कर पुतले तैयार करते थे। लेकिन इस बार सिर्फ चरथावल में छोटा पुतला बनने का ऑर्डर मिल पाया। दशहरे पर इस बार सभी कारीगर घर पर खाली बैठे हैं।
ऑर्डर समय से पूरा करने के लिए जन्माष्टमी से ही पुतले तैयार करने शुरू कर दिए जाते थे। काले कपड़े को पुतले के आकार में सीलने, पुतलों के ढांचे में लगने वाली सामग्री और आकार के अनुरूप लकड़ियां पहले से तैयार कर ली जाती थी। जिससे पुतला दहन के स्थान पर अधिक समय न लगे।