लगातार बदलते सामाजिक समीकरणों और परिवर्तनशील जीवन शैली का प्रभाव हमारी परंपराओं पर भी पड़ता है। कुछ परंपराएं खुद को नए समय के अनुसार ढाल लेती हैं, लेकिन कुछ स्वयं को उसी रूप में बरकरार रखती हैं। जब इन पुरातन परंपराओं से नए जमाने के लोगों का सामना होता है तो उन्हें झटका सा लगता है और वे चौंक जाते हैं। ऐसी ही एक परंपरा थारू समाज में आज भी प्रचलित है जो स्त्री-पुरुष की समानता के नितांत विपरीत है। थारू महिलाएं खाने की थाली परोसने के बाद उसे पैर से आगे बढ़ाकर पुरुषों को देती हैं। इसके पीछे का कारण भी उतना ही दिलचस्प है जितनी विचित्र स्वयं यह परंपरा।
प्रयागराज स्थित सैम हिगिनबाटम इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंसेज की एक शोध रिपोर्ट के अनुसार 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप के सिपहसलारों ने अपने परिवारों की सुरक्षा के मद्देनजर अपने सेवकों के साथ हिमालय की तलहटी में भेज दिया था। भटकते-भटकते ये लोग नेपाल सीमा से सटे उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक पहुंचे और यहीं के जिलों में अपना ठिकाना बना लिया।
राजस्थान के थार इलाके से आए इन लोगों को बाद में थारू कहा जाने लगा। सुरक्षा के दृष्टिकोण से इन महिलाओं ने अपने सैनिकों और सेवकों से विवाह कर लिया। इन युवतियों ने सेवकों से विवाह तो कर लिया लेकिन वे अपनी कुलीन उच्चता के अहसास को नहीं छोड़ सकीं। सुरक्षा के लिए यह विवाह एक समझौते
सरीखा था और यह उनके अहंकार पर निरंतर चोट करता रहा। इसलिए जब वे पुरुषों को खाना परोसती थीं तो थाली को पैर से ठोकर मारकर देती थीं। इससे उनका राजसी अहंकार तुष्ट होता था। धीरे-धीरे इसने परंपरा का रूप ले लिया। हालांकि बदलते सामाजिक ढांचे और सोच ने मालिक और सेवक के अंतर को पाट दिया है और परंपरा शिथिल पड़ गई है, फिर भी यह चलन में है। राजवंशी होने के अहसास की वजह से ही महिलाएं रानियों की तरह आभूषण पहनती हैं। ये खुद को परिवार का मुखिया भी मानती हैं।
क्या कहते हैं समाज के लोग
थारू समाज के पूर्व प्रधान चीपू राम बताते हैं कि यह परंपरा थारू समाज की राना बिरादरी में है, लेकिन इस परंपरा में अब तेजी से बदलाव आ रहा है। इसके अलावा अन्य सामाजिक बदलावों का असर भी इस जनजाति पर पड़ रहा है। शिक्षक कर्मवीर का कहना है कि थारू समाज अब शिक्षा की मुख्यधारा से जुड़ रहा है। लोगों के शिक्षित होने से तमाम सामाजिक कुरीतियां तेजी से खत्म हो रही हैं।