शरीर पर भस्म, हाथों में तीर-तलवार-त्रिशूल और श्रीमुख से हर-हर महादेव का उद्घोष। कुम्भ में देवरूपी नागा संन्यासियों की यही पहचान है। हांड़ कंपाती ठंड में कुम्भ की शान बनने के बाद पूरे साल ये संन्यासी कहां रहते हैं और क्या करते है, शायद बहुत कम लोगों को ये पता होगा।
इस बारे में नागा साधुओं का कहना है कि सालभर दिगम्बर अवस्था में रहना समाज में संभव नहीं है। निरंजनी अखाड़े के अध्यक्ष महंत रवींद्रपुरी ने बताया कि वो खुद भी पेशवाई के दौरान नागा रूप धारण करते हैं। उनका कहना है कि समाज में आमतौर पर दिगम्बर स्वरूप स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में नागा संन्यासी सालभर या तो गमछा पहन कर रहते हैं या फिर वो सिर्फ आश्रमों के अंदर ही ज्यादातर समय व्यतीत करते हैं। नागा संन्यासी खेमराज पुरी के मुताबिक पूरे साल दिगंम्बर अवस्था में रहना संभव नहीं है। इसलिए वो लोग सिर्फ कुंभ के दौरान ऐसे रहते है।
सिर्फ कुंभ के दौरान दिगंबर रूप धारण करने के सवाल पर नागाओं का कहना था कि दिगंबर शब्द दिग् व अम्बर के योग से बना है। दिग् यानी धरती और अम्बर यानी आकाश। इस मतलब जिनका बिछौना धरती और ओढ़ना आकाश हो। नागाओं का मानना है कि कुंभ के दौरान आकाश से अमृत वर्षा होती है, इसलिए वो लोग अपने असली रूप में आ जाते है। पहले नागा साधु अपने वास्तविक रूप में ही पूरे साल रहते थे, लेकिन जैसे-जैसे नागा साधुओं की संख्या बढ़ने लगी आश्रमों में जगह कम होने लगी। इसलिए नागाओं को समाज में रहना पड़ता है।
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