MP में वर्षों से पौधों की प्रजातियों के अनुरूप अलग-अलग पद्धतियों से बड़े वन क्षेत्रों में लगाए जा रहे पौधे

पर्यावरण को लेकर एक अच्छी खबर…अब घने जंगल के लिए ज्यादा जगह की जरूरत नहीं होगी, बल्कि शहरों में कॉलोनियों के अंदर कम जगह में ही घने जंगल विकसित किए जा सकेंगे। जल एवं भूमि प्रबंधन संस्थान (एमपी वाटर एंड लैंड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट-वाल्मी) भोपाल ने वाल्मीयाकी नामक नई पद्धति को खोजने और उसकी सफलता का दावा किया है। वाल्मी ने खुद के परिसर समेत भोपाल के पॉलिटेक्निक कॉलेज, खजूरी सड़क और सतना जिले में नई पद्धति से सघन वन क्षेत्र विकसित करने की शुरुआत की है। इस पद्धति में 15 से 60 फीट ऊंचाई के सभी प्रजातियों के वृक्ष तैयार किए जा सकते हैं। आमतौर पर घना जंगल विकसित करने के लिए लंबे-चौड़े क्षेत्र की जरूरत होती है।

मध्य प्रदेश में वर्षों से पौधों की प्रजातियों के अनुरूप अलग-अलग पद्धतियों से बड़े वन क्षेत्रों में ही पौधे लगाए जा रहे हैं। ज्यादातर क्षेत्रों में हजारों पौधे लगाने के बावजूद घने जंगल विकसित नहीं हुए हैं। सभी प्रजातियों के पौधे लगाते समय कोई विशेष पद्धति का उपयोग नहीं किया जा रहा है। इसमें जगह ज्यादा लगती है। घना जंगल कब तक विकसित होगा, इसकी भी समय सीमा तय नहीं होती है। शहरों में वैसे ही जगह कम होती है, जहां घने जंगल विकसित करने के लिए अधिक जमीन मुश्किल से मिलती है। इसे देखते हुए वाल्मी ने डेढ़ साल पहले जापानी वैज्ञानिक अकीरा मियावाकी द्वारा खोजी गई मियावाकी पद्धति से वाल्मी परिसर के 100 वर्ग मीटर में पौधे लगाए थे, जो 15 से 20 फीट ऊंचे हो चुके हैं। यही नहीं, इससे विकसित जंगल भी घना है।

इस तरह से विकसित होते हैं घने जंगल

वाल्मी के कृषि संकाय के विभागाध्यक्ष डॉ. रवींद्र ठाकुर बताते हैं कि वाल्मीयाकी पद्धति में एक वर्ग मीटर के भीतर तीन पौधे लगाए जाते हैं। पौधे लगाने के लिए गहरा गड्ढा खोदते हैं। गड्ढे में पोषक तत्व युक्त जैविक खाद और रेत की अलग-अलग परत तैयार करनी होती हैं। सबसे पहले 60 फीट से अधिक ऊंचाई तक जाने वाले वृक्षों के पौधे लगाते हैं। फिर 40 से 60 फीट, 20 से 40 फीट, 10 से 20 फीट ऊंचाई तक जाने वाले वृक्षों के पौधे लगाते हैं। गड्ढे में अलगअलग परत पानी व पोषक तत्वों को पौधों की जड़ों तक पहुंचाने के लिए बनाते हैं। इससे हर पौधे को अपनी मिट्टी व पोषण मिल जाता है। वाल्मी प्रबंधन ने मियावाकी पद्धति में मामूली बदलाव करते हुए वाल्मीयाकी पद्धति ईजाद की है। इसमें घरेलू संसाधनों से तैयार की जाने वाली जैविक खाद (नाडेप) का इस्तेमाल किया गया, जो कि मियावाकी नहीं होता।

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