दिल्ली के बाद बिहार में ही घमासान की बारी है, जहां अक्टूबर-नवंबर में चुनाव होने हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार-जीत का असर बिहार के दोनों गठबंधनों पर सीधा पड़ेगा। पड़ता भी रहा है। कड़े संघर्ष एवं लंबे इंतजार के बाद आम आदमी पार्टी (आप) पर विजय से भाजपा का आत्मबल बढ़ा है।
इससे जदयू को उसकी बराबरी में खड़ा रहने के लिए अतिरिक्त दांवपेंच की जरूरत पड़ेगी। देश की राजधानी से एक सशक्त क्षेत्रीय दल की पराजय का सर्वाधिक असर राजद और जदयू जैसी क्षेत्रीय पार्टियों पर पड़ सकता है। कांग्रेस को बहुत नजरअंदाज करके नहीं चला जा सकता है।
…तो कांग्रेस बढ़ा सकती है आरजेडी की मुश्किलें
दिल्ली में कांग्रेस हारी जरूर है, लेकिन मकसद को बचाकर रखा है। बिहार में भी कांग्रेस अगर दिल्ली की तरह ही अपने आप पर आ गई तो राजद की मुश्किलें बढ़ा सकती है। एक दशक बाद दिल्ली की सत्ता से एक क्षेत्रीय दल के प्रणेता के रूप में अरविंद केजरीवाल के बाहर हो जाने से कांग्रेस की ताकत में वृद्धि हो सकती है।
कांग्रेस को कटघरे में नहीं खड़ी कर पाएगी आरजेडी
बातचीत के दौरान तेजस्वी यादव के सामने बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद तनकर खड़े हो सकते हैं। घटिया स्ट्राइक रेट के इल्जाम से कांग्रेस लोकसभा चुनाव में ही मुक्त हो चुकी है। राजद से कम सीटों पर लड़कर भी कांग्रेस ने ज्यादा सीटें जीती थीं, जिसके बाद से राजद ने कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करना छोड़ दिया था।
आरजेडी ने लगाया था कांग्रेस पर बुरे प्रदर्शन का आरोप
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में अपने हिस्से की 70 सीटों में सिर्फ 19 पर जीतने के कारण राजद ने कांग्रेस पर घटिया स्ट्राइक का इल्जाम लगाया था। वक्त-बेवक्त इसका ताना भी सुनना पड़ता था, लेकिन कांग्रेस अब नए तेवर के साथ राजद की ओर सहयोग का हाथ बढ़ाकर ज्यादा सीटें मांग सकती है।
बिहार में केजरीवाल की तरह राजनीति का रहे पीके
सबसे ज्यादा प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज प्रभावित हो सकती है, क्योंकि बिहार में वह केजरीवाल की तर्ज पर ही राजनीति कर रही है। दिल्ली का नतीजा अगर उल्टा आता और भाजपा सत्ता से दूर रह जाती तो बिहार में उसकी सहयोगी पार्टियां ज्यादा से ज्यादा सीटों की मांग कर सकती थी, किंतु अब उन्हें विनीत होकर ही भाजपा से बात करनी पड़ेगी।
महागठबंधन में बन सकती है हताशा
भाजपा की मजबूती के सामने जदयू भी खुद को एक दायरे में सीमित कर सकता है। हालांकि, बिहार में भाजपा-जदयू समेत एनडीए के सभी पांचों दल एकजुट होकर विधानसभा चुनाव की तैयारियों में पहले से ही जुटे हैं। उनकी एकता को दिल्ली से नई ऊर्जा मिलेगी, जिससे महागठबंधन के भीतर खलबली और हताशा की स्थिति बन सकती है।तीन चुनावों से बिहार में विधानसभा का चुनाव दिल्ली के बाद ही होता आ रहा है। दिल्ली में वर्ष 2015 में भी केजरीवाल से करारी हार के कारण बिहार में टूटे मनोबल के साथ भाजपा को जाना पड़ा था। तब बिहार में नीतीश कुमार की कृपा से जीतनराम मांझी की सरकार थी, जो एक वक्त के बाद जदयू के नियंत्रण से बाहर हो चुकी थी।
पिछले बिहार चुनाव में बीजेपी पर भारी पड़े थे क्षेत्रीय दल
मांझी सरकार को नीतीश गिराना चाहते थे। भाजपा अगर मांझी के साथ खड़ी हो जाती तो नीतीश कामयाब नहीं होते, किंतु दिल्ली की हार से पस्त भाजपा ने मांझी सरकार के बचाव की हिम्मत नहीं जुटा पाई। बाद में बिहार विधानसभा चुनाव में भी क्षेत्रीय दलों जदयू और राजद का गठबंधन भाजपा पर भारी भी पड़ा।