संविधान की प्रस्तावना में भी संशोधन कर सकती है देश की संसदः सुप्रीम कोर्ट!

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पंथनिरपेक्षता की धारणा समानता को प्रदर्शित करती है जो संविधान का मूल स्वरूप है। इसी तरह समाजवाद शब्द को सिर्फ आर्थिक नीतियों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। समाजवाद कल्याणकारी राज्य की प्रतिबद्धता का द्योतक है जो राज्य द्वारा अवसर की समानता सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करता है। कोर्ट ने कहा कि संसद संविधान की प्रस्तावना में भी संशोधन कर सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिकाएं सोमवार को खारिज कर दी। कोर्ट ने 42वें संविधान संशोधन के जरिये प्रस्तावना में जोड़े गए इन दोनों शब्दों को 44 वर्ष बाद चुनौती दिए जाने पर सवाल उठाते हुए कहा कि इतने समय बाद चुनौती देने का कोई न्यायोचित आधार नजर नहीं आता। याचिका पर विस्तार से विचार करने की जरूरत नहीं लगती।

संसद को संविधान संशोधन की निर्विवाद शक्ति
शीर्ष अदालत ने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज है। संसद को संविधान संशोधन की निर्विवाद शक्ति प्राप्त है और यह शक्ति प्रस्तावना में संशोधन तक विस्तारित है। प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने इसके साथ ही भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी तथा अन्य की तीन याचिकाएं खारिज कर दीं।

कोर्ट ने याचिका की खारिज
तीनों ही याचिकाओं में आपातकाल के दौरान 1976 में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा 42वें संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ को चुनौती दी गई थी। इनमें कहा गया था कि संविधान में शुरू में ये दोनों शब्द नहीं थे, इन्हें बाद में जोड़ा गया और वह भी पूर्व तिथि यानी संविधान अंगीकर करने की तिथि 26 नवंबर, 1949 से प्रभावी किया गया। संशोधन को पूर्व तिथि से लागू करना गलत था।

याचिकाएं खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद-368 संसद को संविधान संशोधन की इजाजत देता है। अगर याचिकाकर्ताओं की पूर्व तिथि से संशोधन लागू करने की दलील स्वीकार की जाएगी तो यह चीज संविधान के किसी भी हिस्से में किए गए संशोधन पर समान रूप से लागू होगी।

भारत ने पंथनिपेक्षता की अपनी व्याख्या विकसित की
कोर्ट ने कहा कि यह सही है कि संविधान सभा प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ने को राजी नहीं थी, पर संसद को इसमें संशोधन की शक्ति दी गई है। समय के साथ भारत ने पंथनिपेक्षता की अपनी व्याख्या विकसित कर ली है। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 से आता है जो धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है।

प्रस्तावना का मूल तत्व समानता, बंधुत्व व गरिमा
साथ ही कानून के समक्ष समानता और रोजगार के अवसरों में समानता की गारंटी देता है। प्रस्तावना का मूल तत्व समानता, बंधुत्व व गरिमा है। कोर्ट ने संविधान में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राप्त विभिन्न अधिकारों का जिक्र करते हुए कहा कि इसके बावजूद अनुच्छेद-44 के नीति निदेशक तत्वों में सरकार को नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करने की इजाजत दी गई है।

पंथनिरपेक्षता संविधान का मूल तत्व
केशवानंद भारती सहित कई पूर्व फैसलों में कहा जा चुका है कि पंथनिरपेक्षता संविधान का मूल तत्व है। यह सिद्धांत समानता के अधिकार के एक पहलू को प्रदर्शित करता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में समाजवाद का अर्थ सरकार की आर्थिक नीतियों तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि इसे स्वीकार किया जा चुका है।

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