गंगा का धार्मिक महत्व
हम भारतीयों का नदी प्रेम जगजाहिर है। फिर गंगा तो आस्थावान भारतीय जनमानस के मन-प्राण में बसी है। हम गंगा को मां का दर्जा देते हैं। मान्यता है कि गंगा पतितपावनी है। गंगा के निर्मल जल में स्नान से हमारे सारे पाप धुल जाते हैं। जीवन के अंतिम क्षणों में मुंह में गंगा-जल डाल दिया जाए तो बैकुंठ मिल जाता है। गंगा का जल इतना पवित्र होता है कि महीनों बाद भी उसका प्रयोग किया जा सकता है। गंगा का जहां से उद्गम हुआ है उस जगह चूने की पहाडि़यां हैं। देवदार सहित कई जड़ी बूटियों के पेड़ हैं जिनसे होकर गंगा बहती है। गंगा में स्नान करने से हर रोग से छुटकारा मिल जाता है।
प्रदूषित हो चुकी है गंगा
यह विडंबना ही है कि आज गंगाजल पीना तो छोडि़ए आचमन लायक भी नहीं बचा है जबकि गंगा हमारी पुरातन आर्य संस्कृति की परम पावन धरोहर है। इसी नदी घाटी में एक ऐसी उत्कृष्ट सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीन इतिहास अत्यंत गौरवपूर्ण और वैभवशाली है। संभवत: इसीलिए हमारे मनीषियों ने गंगा को भारत की सुषुम्ना नाड़ी की संज्ञा दी है। लेकिन पिछले 40-50 वर्षो में अनियंत्रित विकास और अंधाधुंध औद्योगिकीकरण के कारण प्रकृति के साथ स्नेहिल दृष्टि से पूर्ण ऋ षि संस्कृति का वह तानाबाना पूरी तरह टूट गया। नतीजतन हमारी राष्ट्रीय नदी आज दुनिया की दस सबसे प्रदूषित नदियों में गिनी जाने लगी है।
गंगा किनारे हुआ सभ्यताओं का उदय
पावन गंगा के तटों पर ज्ञान, धर्म, अध्यात्म व सभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरणें प्रस्फुटित हुईं। जिनसे न केवल भारत वरन समूचा संसार आलोकित हुआ। इसके किनारे रामायण और महाभारत कालीन सभ्यताओं का उद्भव और विलय हुआ। शतपथ, पंचविश व गोपथ ब्राह्मण, ऐतरेय, कौशितकी और सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता एवं रामायण, महाभारत व पौराणिक ग्रंथों में वर्णित घटनाओं से उत्तर वैदिक कालीन गंगा घाटी उन्नत सभ्यता की विस्तृत जानकारी मिलती है।
गंगा का वैज्ञानिक महत्व
प्रयोगशालाओं में साबित हो चुका है कि गंगाजल में पाया जाने वाला बैक्टीरियोफेज नामक जीवाणु इसे सड़ने नहीं देता। राष्ट्र की यह जीवनदायिनी आज अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। है न कितना विरोधाभासी तथ्य पर सच्चाई यही है। हमारे ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के दृष्टिगत नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित समूचे जीवजगत के साथ सहअस्तित्व की विशिष्ट अवधारणा विकसित की थी। मध्ययुग की बात करें, तो मौर्य और गुप्त वंश के राजाओं के शासनकाल में भारत का स्वर्ण युग गंगा घाटी में ही हुआ। आज भी देश के तकरीबन 40 करोड़ लोगों की आजीविका गंगा पर निर्भर है। कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में गंगा की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं।
गंगा धरती पर देवलोक का महाप्रसाद
गंगा हम धरतीवासियों को देवलोक का महाप्रसाद है। जो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के वंशज राजा भगीरथ के महापुरुषार्थ से हमें प्राप्त हुआ। गंगा दशहरा मां गंगा के धराधाम पर अवतरण का परम पुनीत पर्व है। शास्त्र कहते हैं कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को सूर्यवंशी राजा भगीरथ का कठोर तप सार्थक हुआ और स्वर्ग की नदी गंगा देवाधिदेव शिव की जटाओं से होती हुई धराधाम पर उतरीं। स्कंद पुराण में उल्लेख मिलता है कि जिस दिन धरती पर गंगावतरण हुआ उस दिन दस योग थे। ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, बुध दिन, हस्त नक्षत्र, व्यतिपात, गर और आनंद योग तथा कन्या राशि में चंद्रमा तथा वृष राशि में सूर्य। इसी कारण इन दिन किया गया गंगास्नान दशहरा यानी दस पापों का हरण करने वाला माना जाता है।
इसलिये गंगा को भगीरथी भी कहा जाता है
भगीरथ के कठोर तप के फलस्वरूप देवनदी गंगा धरती पर आने को प्रस्तुत हुईं और उनके वेग को संभालने का दायित्व लिया देवाधिदेव शिव ने। कहा गया है कि गंगा शिव की जटाओं से प्रवाहित ब्रह्मा द्वारा निर्मित बिंदुसर सरोवर में उतरीं। मान्यता है कि इस सरोवर की आकृति गाय के मुख के समान दिखने के कारण इस स्थल का नाम गोमुख भी पड़ गया। यहां से गंगा सात धाराओं में विभक्त होकर राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर पृथ्वी लोक में प्रवाहित हुईं और कपिल मुनि के आश्रम में पहुंच महाराज सगर के साठ हजार पुत्रों को शाप मुक्त किया।