भारतीय जनता पार्टी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष के रूप में दिलीप जायसवाल का नाम गुरुवार शाम में ही आ रहा था, लेकिन वह भी यह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। क्यों? उन्हें भी पता है कि अब मंत्री की कुर्सी कभी भी जा सकती है।
यह सुख की खबर है या दु:ख की, यह फैसला डॉ. दिलीप जायसवाल वास्तविक रूप से जाहिर नहीं कर सकते हैं। लंबे समय से राजनीति कर रहे हैं। पहली बार बिहार सरकार के मंत्री बने। लेकिन, छह महीने बाद ही वह कुर्सी अब किसी भी समय जा सकती है। संगठन की जिम्मेदारी मिलने पर खुशी जाहिर कर रहे हैं, लेकिन उन्हें यह पता है कि जिस तरह मंत्री बनाए जाने के कारण सम्राट चौधरी की कुर्सी छिन गई- उनकी भी छिनेगी। उन्होंने संगठन को मजबूती को अपनी प्राथमिकता बताते हुए बिहार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया है, लेकिन यह पक्का है कि उनके समर्थकों की खुशी पहले के मुकाबले घट गई है।
अपनी ही सरकार के भ्रष्टाचार पर उठाया था सवाल
कहने के लिए उन्हें केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का करीबी कह सकते हैं। कहने के लिए उन्हें भाजपा के कोर वोट बैंक वैश्य समाज का प्रमुख चेहरा कह सकते हैं। कहने के लिए बिहार की जातीय जनगणना में उन्हें 11वें और 12वें नंबर पर रही जातियों (तेली- 2.81%+बनिया-2.31%) के वोट बैंक का दावेदार कह सकते हैं। लेकिन, इन अच्छी बातों के बीच याद यह रखा जाएगा कि डॉ. दिलीप जायसवाल ने पिछले महीने अपनी ही राज्य सरकार में भ्रष्टाचार को लेकर सवाल खड़ा किया था।
खुद मंत्री रहते हुए अपने ही विभाग के भ्रष्टाचार की पोल खोलने के बाद से कहा जा रहा था कि उनपर कोई बंदिश लग सकती है। तो, क्या यह बंदिश है? क्योंकि, भाजपा के प्रावधानों के हिसाब से कभी भी केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा को भी राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ सकता है तो डॉ. दिलीप जायसवाल का यहां टिके रहना कहां संभव है!
मंत्री बनते ही सम्राट की कुर्सी जाती, चुनाव के नाम पर बचे
सम्राट चौधरी मंत्री बनने के बाद छह महीने इसलिए टिक गए, क्योंकि बीच में लोकसभा चुनाव था। लोकसभा चुनाव के बीच भाजपा संगठन में उलटफेर नहीं करना चाहती थी, इसलिए वह कायम रह गए। कुशवाहा वोट बैंक पर उनके रहने से कोई सकारात्मक असर नहीं पड़ा, यह लोकसभा चुनाव में साफ दिख गया। यहां तक सम्राट चौधरी राष्ट्रीय लोक मोर्चा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा को भी उनकी काराकाट सीट पर जीत सुनिश्चित नहीं करा सके। इसके अलावा कुशवाहा वोटरों में सेंधमारी में महागठबंधन के कई नेता कामयाब भी रहे और राष्ट्रीय जनता दल ने ऐसे नेताओं को इज्जत भी बख्शी। ऐसे में सम्राट की कुर्सी छह महीने रह गई, वही काफी है।
मंत्री पद अच्छा या प्रदेश भाजपा अध्यक्ष?
चाणक्य इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिकल राइट्स एंड रिसर्च के अध्यक्ष सुनील कुमार सिन्हा कहते हैं- “दूसरी पार्टी से आकर बिहार में भाजपा अध्यक्ष बने सम्राट चौधरी के मुकाबले भाजपा के कैडर डॉ. दिलीप जायसवाल की पार्टी में स्वीकार्यता ज्यादा होगी, इसमें कोई शक नहीं। सम्राट को लेकर पार्टी के पुराने नेता कई बार असहजता दिखा चुके थे। लंबे समय तक पार्टी के ओहदों पर रहे दिग्गज नेता सम्राट के आसपास आम तौर पर नहीं रहना चाहते थे। उन्हें इस बदलाव से राहत मिली होगी। लेकिन, जहां तक मंत्री पद और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के मौजूदा पद का सवाल है तो डॉ. दिलीप जायसवाल को फायदे से ज्यादा नुकसान होगा।
फायदा तभी हो सकता है, जब वह बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में अपनी इस नई जिम्मेदारी का लाभ पार्टी को व्यापक पैमाने पर दिला सकें। इससे पहले डॉ. संजय जायसवाल इस तरह का फायदा दिलाकर भी केंद्र में मंत्रीपद का इंतजार करते रह गए हैं, फिर भी डॉ. दिलीप जायसवाल खुद को अपवाद मानकर बढ़ सकते हैं।” दूसरी तरफ मंत्रीपद की बात करें तो इसमें सरकारी ताकत तो रहती ही है, समर्थकों का कई काम आसानी से कराना संभव भी होता है। जहां तक बिहार भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष का सवाल है तो सत्ताधारी दल की कमान संभालने के बाद पार्टी की परंपरा के तहत सभी मंत्रियों से ऊपर हैं- इसमें कोई शक नहीं। बस, देखना है कि वह कितनी सहजता से काम करते और करा पाते हैं।