उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अविश्वसनीय जीत ने हमारे विपक्षी धुरंधर राजनेताओं को इतना निराश कर दिया है कि अब वे 2019 की बजाय 2024 की बात करने लगे हैं, लेकिन इस जीत और उस निराशा, दोनों का एक मज़ेदार विचारणीय पहलू और भी है – नरेंद्र मोदी के पिछले पौने तीन साल के शासन का मूल्यांकन.
यदि हम प्रभाव की बात करें, तो सच यही है कि इस दौरान लोगों के जीवन पर कोई भी विशिष्ट सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है. सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार में तनिक भी कमी नहीं आई है. गवर्नेन्स का हाल पहले जैसा ही है. न रोज़गार के अवसर बढ़े हैं, न लोगों का जीवन-स्तर. चाहे आम लोग हों या महिलाएं, असुरक्षा की भावना बढ़ती ही जा रही है.
ऐसी स्थिति में इस बात पर विचार किया ही जाना चाहिए कि फिर इतनी बड़ी जीत क्यों, और विपक्ष के अंदर इतना घना अंधेरा क्यों…?
इसका सबसे बड़ा कारण है – प्रधानमंत्री के प्रति लोगों का अडिग विश्वास, जो भविष्य पर आधारित है. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने मतदाताओं से पांच साल नहीं, बल्कि 10 और कहीं-कहीं तो 15 साल तक मांगे थे. अभी तो तीन भी पूरे नहीं हुए हैं. पिछले लगभग 65 साल से छले जाते रहने वाले मतदाता ने अब उन्हें इतना वक्त देने का मन बना लिया है. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उसे वर्तमान सरकार उस संकल्प को पूरा करने की ओर जाती दिखाई दे रही है, जो उसकी नीतियों और कार्यक्रमों से झलकने लगा है.
सरकार की अब तक की नीतियों के केंद्र में रहा है – बदलाव के लिए पृष्ठभूमि तैयार करना. काले धन के खिलाफ जिस जंग की शुरुआत की गई है, उसके परिणाम भले ही तत्काल न मिलें, लेकिन भविष्य में दिखाई देने से कोई रोक नहीं सकेगा. विमुद्रीकरण, बेनामी संपत्ति अधिनियम तथा जन-धन खाता योजना इस जंग की रणनीति की ही आधार-भूमि हैं.
राजनीतिक नज़रिये से आप इसे काले रंग के खिलाफ किया गया सफेद रंग का अंकन कह सकते हैं. इससे पहले की सरकार न केवल काले रंग में ही रंग चुकी थी, बल्कि नीतिगत कदम उठाने में भी उसे लकवा मार गया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन दोनों के विरोध में पूरे जोश के साथ अपनी मुहिम की शुरुआत कर राजनीतिक-युद्ध जीत लिया. आप यूं कह सकते हैं कि न केवल कहकर ही, बल्कि कुछ-कुछ करते रहकर भी उन्होंने भविष्य के प्रति गहरे अवसाद में फंसे लोगों को निकालने में सफलता पाई है.
पीएम नरेंद्र मोदी की नीतियों से एक बात तो बिल्कुल साफ लगती है कि वह लंबी रेस के घोड़े की सवारी करना पसंद करते हैं, फिर भले ही उसकी चाल धीमी क्यों न हो. और यही बात उन्हें फिनिशिंग लाइन तक सबसे पहले पहुंचा देती है. यहां पहुंचने के बाद वह अगली नई यात्रा की शुरुआत करते हैं, जो हो चुकी है. उज्ज्वला योजना के तहत लकड़ी और कंडों के धुएं से परेशान गृहिणियों तक मुफ्त गैस के सिलेंडर पहुंचाने की नीति इसी दिशा में उठाया गया पहला जबर्दस्त कामयाब कदम है.
केंद्र में सत्ता में आते ही मंत्रिमंडल ने पहला निर्णय काले धन के लिए एक समिति गठित करने का लिया था, और देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आते ही इस मंत्रिमंडल ने अगला अत्यंत परिवर्तनवादी एवं प्रभावशाली फैसला किया है – राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का.
‘रोटी, कपड़ा और मकान’ की तर्ज पर यदि हम शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय की बात करें, तो स्वास्थ्य इसमें रोटी के समानान्तर पहले स्थान पर आएगा. गरीब से गरीब आदमी की भी एक-तिहाई कमाई केवल बीमारी में खप जाती है. इस दौरान होने वाली कमाई का नुकसान अलग. इस नीति के तहत जिस स्वास्थ्य बीमा योजना की बात कही गई है, यदि उसे लागू किया जा सका, तो यह एक प्रकार से लोगों की (केवल गरीबों की नहीं) आय में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी करने जैसा होगा. प्रधानमंत्री जन-धन खाता योजना ने इसके सफल होने की संभावना की भूमिका पहले ही तैयार कर दी है, और फिर लोगों के जीवन पर इसका जो प्रभाव होगा, उसका प्रमाण मिल जाएगा, वर्ष 2019 के आम चुनाव में. शायद विरोधी दल इसे भांप गए हैं, इसलिए निराश भी हैं.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं…
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