लखनऊ कथकाचार्यों का शहर है। महान कथाकाचार्यों की समृद्ध श्रृंखला ने नृत्य जगत में लखनऊ का नाम हमेशा रोशन रखा। पंडित लच्छू महाराज कथक के लखनऊ घराने के हृदय रहे हैं। उन्हें कथक में लास्य भाव का सम्राट कहा जाता है। लखनऊ घराने की कीर्ति विश्व विख्यात करने में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा। 13 नवंबर 1963 को उप्र संगीत नाटक अकादमी की स्थापना हुई थी। कथकाचार्य पं. लच्छू महाराज के प्रयासों से उप्र शासन द्वारा 1972 में अकादमी के अंतर्गत कथक केंद्र को स्थापित किया गया। महाराज शागिर्दों को कलाकार और शिक्षक बनाने में यकीन रखते थे। तभी तो कथक केंद्र में अपने कार्यकाल 1972-1978 के दौरान उन्होंने अनेक उत्कृष्ट कलाकार तैयार किए। इनमें मुख्यत: रमा देवी, सितारा देवी, रोहिणी भाटे, दमयंती जोशी, कुमकुम आदर्श, गोपीकृष्ण, पद्मा शर्मा, शन्नू महाराज, केदार खत्री, राजा केतकर, पीडी. आशीर्वादम, ओमप्रकाश महाराज, कपिला राज, मालविका सरकार, कुमकुम धर, मीना नंदी, सविता गोडबोले आदि ने कथक जगत में विशेष प्रतिष्ठा अर्जित की। आइए, कथक में कवित्त जैसे लास्य सम्राट लच्छू महाराज की जयंती के अवसर पर उनकी शिष्याओं और कथक कलाकारों की स्मृतियों और अनुभव के सागर से मोती चुनते हैं…।
मानो श्रीकृष्ण स्वयं महाराज जी के स्वरूप में अवतरित हो गए : डॉ. पूर्णिमा पांडे
कथक के लखनऊ घराने को जिस नाम ने पहचान दिलाई ऐसे कालिका महाराज के तीन पुत्रों में से बीच के बैजनाथ प्रसाद मिश्र ही आज लच्छू महाराज के नाम से विख्यात हैं। कहते हैं, इनके ताऊ बिंदादीन महाराज ने अपने तीनों भतीजों अच्छन महाराज, लच्छू महाराज और शंभू महाराज को गंडा बांधकर नृत्य की शिक्षा दी थी। बीसवीं सदी के दूसरे दशक में बिंदादीन महाराज का निधन हो जाने के कारण परिवार का पूरा दायित्व अच्छन महाराज पर आ गया। यही समय था जब अच्छन महाराज को रामपुर नवाब का आमंत्रण मिला। वो अपने दोनों छोटे भाइयों को लेकर रामपुर चले गए और यहां नवाब हामिद अली साहब के दरबारी नर्तक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। महफिल में गुणीजन की उपस्थिति में लच्छू महाराज नवाब साहब के बाजू में बैठते तो गर्वित महसूस करते। लच्छू महाराज की युवावस्था का एक लंबा समय नवाबी माहौल में गुजरा। यही कारण रहा कि महाराज जी अपने जीवन के अंतिम काल तक नवाबी ठाठ-बाट में ही जिये।
1972 में जब लच्छू महाराज लखनऊ आए तो शुरू में कुछ महीने कालका बिंदादीन ड्योढ़ी में ही रहे। गुरु विक्रम सिंह जी ने जब मेरे नृत्य की प्रशंसा करते हुए उनसे मेरा परिचय कराया तो उन्होंने तुरंत कहा- “ठीक है, इसे मैं डॉक्टर साहब के यहां होली की बैठक में अभिनय करवाऊंगा…” और मुझसे अगले दिन सीखने के लिए ड्योढ़ी पर आने के लिए कहा। महाराज जी से मेरा पहला पाठ- घूंघट के विभिन्न प्रकार और एक ही मुद्रा को तनिक सा पलटने पर कैसे राधा से कृष्ण और कृष्ण से राधा का भाव प्रस्तुत किया जाता है- इस खूबसूरत गत का था। सीखने के दौरान कभी-कभी महाराज जी की अद्भुत भाव भंगिमा मुझे आत्मविभोर कर देती थी, ऐसा लगता था मानो भगवान कृष्ण स्वयं उनके स्वरूप में अवतरित हो गए हों। यहीं पर उन्होंने मुझे बिंदादीन महाराज द्वारा रचित “मैं तो खेलूंगी उन ही से होरी गुइयां…” ठुमरी पर भी अभिनय सिखाया था। डॉ. त्रिलोकी नाथ के निवास पर होली बैठकी की प्रतिक्षा लखनऊ के सभी संगीत प्रेमियों को रहती थी। उस बार होली की मेरी नृत्य प्रस्तुति में नृत्त पक्ष के साथ इसी ठुमरी पर भावाभिनय करवाया। कथक नृत्य की इतनी महान विभूति के संरक्षण में गुणीजन की किसी बड़ी महफिल में प्रस्तुति देने का यह मेरा प्रथम अनुभव था। यह मेरा सौभाग्य था कि मेरी प्रस्तुति से महाराज प्रसन्न हुए और मुझे उनका आशीर्वाद प्राप्त हुआ।
महाराज जी भाव के पंडित थे। उनके अनुसार अभिनय करते समय आनंद, लज्जा, विरह, व्याकुलता, श्रृंगार की अनेक बारीक छटा अपने चेहरे द्वारा प्रस्तुत करना ही नृत्य को सार्थकता प्रदान करता है। उनके द्वारा रचित तांडव लास्य प्रधान “अर्धनारीश्वर” लखनऊ घराने का हर नर्तक-नर्तकी आत्मसात करना चाहता है। यूं तो कथक नृत्य का हर घराना अपने में परिपूर्ण है, लेकिन यदि हम सिर्फ लखनऊ घराने की बात करें तो इसमें लास्य और भावों का अद्भुत समन्वय मिलता है। भावों के विभिन्न रंगों से ओत-प्रोत दिखता है। इन्हीं रंगों से लच्छू महाराज जी ने कलाकारों को अवगत कराया था। मुगले आजम फिल्म का ठुमरी ढंग आज भी हमें हर्षित करता है। “बाजी मुरजाई सुर तान गिरधर की…” कवित्त में बाजी शब्द को अपने भाव, अंग, प्रत्यंग से कई तरीके से प्रदर्शित किया, जो देखते ही बनता था। अपनी कथक शिक्षा के दौरान मैंने अपने दोनों गुरुजन से उनके बारे में काफी सुना। डॉ. पुरु दधीचि ने बताया कि वो एक प्रयोगधर्मी कलाकार थे। तोड़े-टुकड़े भी भाव के साथ प्रदर्शित किए जा सकते हैं, इसका आरंभ उन्होंने ही किया। उनके सृजन करने की असीम क्षमता थी, साथ ही नए सृजनात्मक प्रयोगों की वो प्रशंसा भी करते थे। “दक्ष यज्ञ” इसका बेहद खूबसूरत उदाहरण है। गुरु कपिला राज उनकी प्रिय शिष्यों में से एक थीं, उनसे शिक्षा लेने के दौरान मुझे महाराज जी की नृत्य संबंधी बारीकियों के बारे में पता चला। मसलन, परन जुड़ी आमद में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़, गंगाअवतरण परन, ता थेई, तत थेई के टुकड़ों में होली के भाव, गतों के विभिन्न प्रकार। तीन ताल के अलावा अन्य ताल में गत निकास उन्हीं का चलन था। उनके बारे में गुरु कपिला राज से जितना सुना और सीखा, उसी का प्रभाव रहा कि मैंने अपना सारा ध्यान नृत्य के भाव पक्ष पर केंद्रित किया। – लेखिका डॉ. पुरु दधीचि एवं लच्छू महाराज की प्रिय शिष्या कपिला राज की शागिर्द हैं।
शानदार कवि और शायर भी थे गुरु जी: श्रृंगारमणि कुमकुम आदर्श
मैं वो नगमा हूं, जो खामोश है इक मुद्दत से हस्ती-ए-साज को छेड़ा तो बिखर जाऊंगा। ये शेर लच्छू महाराज का लिखा है। श्याम भई घर श्याम नहीं, कहुं श्याम बिना सखि श्याम न आए श्याम ही श्याम पुकार रही दई, शाम हुई घनश्याम न आए… ये कविता भी उनकी ही रची है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि महाराज जितने उम्दा नर्तक थे, उतने ही शानदार कवि भी। 1972 में उनसे पहली मुलाकात कैसरबाग में भातखंडे के पास स्थित कथक गुरु विक्रम सिंघे के घर पर हुई। उस समय मैं बहुत छोटी थी। विक्रम जी ने लच्छू महाराज से कहा कि इसे आप अपनी शिष्या बना लीजिए, ये अब आपसे कथक सीखेगी। उन्होंने कथक केंद्र की पहली शिष्या मुझे बनाया। भाव में डूबे हुए नेत्र, विशाल ललाट, सिर के बीच से सफेद बालों की पीछे तक जाती लकीर, कानों के आसपास सघन केश, सोने की जंजीर, लाल डोरी की मंत्रयुक्त माला, कढ़ा हुआ कुर्ता…एक नजर में इस छवि ने मन को उस महान कलाकार के प्रति श्रद्धा से भर दिया। उनके स्नेह भरे आशीष ने जीवन में बुलंदियां छूने का साहस दिया। उनके सानिध्य में थिरकते हुए कब उनके परिवार की सदस्य सी हो गई, पता भी नहीं चला। उनका प्यार, गुस्सा, ममता और उदारता को निकट से देखने का मौका मिला। अभ्यास के साथ वो हमेशा शिष्य-शिष्याओं की जरूरतों का भी ख्याल रखते। रविवार के दिन शिष्य-शिष्याओं को घर पर ही बुला लेते और फिर सबको स्वादिष्ट भोजन कराते। वो सब स्मृतियां आज भी ताजा हैं। – लेखिका पंडित लच्छू महाराज की प्रमुख शिष्या और लच्छू महाराज बैले सेंटर की डायरेक्टर हैं।
बोल और बंदिश में भाव को पिरोते
महाराज जी भावाभिनय के क्षेत्र में कथक में पारंगत थे। आप कथक के बोलों और बंदिशों में भावों को या छोटे-छोटे कथानकों को पिरोकर उसके सौंदर्य में वृद्धि करने में सिद्धहस्त थे। उन्होंने मेरी गुरुजी पूर्णिमा पांडे को एक परंपरागत परन के बोल पर “धा तक्का थूंगा” पर राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ के कथानक को बैठाकर सिखाया, जो अपनी गुरु से मैंने भी सीखा। गुरु से महाराज जी के बारे में बहुत कुछ जाना, जिसे मैंने अपने शिष्य-शिष्याओं को भी बताया। मुझे तीन ताल में भगवान कृष्ण पर आधारित महाराज जी की कवित्त रचना भी अपनी गुरुजी से प्राप्त हुई…
बीन मृदंग, झांझ ढप बाजत, तापर नाचत कृष्ण कन्हैया
गोपिन के संग रास रचावत, नाच नचावत ता ता थैया
खेलत गेंद गिरौ जमुना बिच, नृत्य कियो महा नाग नथैया
कोप के इंद्र गिरौ बृज ऊपर, गोपी करैं सब हा हा दैया
धाय उठाय दियो गिरि नख पर, वंंशी बजावत धेनु चरैया
सबके मन मोहन मन भाये, मेरो मन मैया, मेरो मन मैया, मेरो मन मैया…।
नृत्य संस्कार का नया चेहरा
पंडित लच्छू महाराज ने अपनी अगली पीढ़ी पुत्र कृष्ण मोहन, राम मोहन और पुत्री रामेश्वरी को कथक के संस्कार दिए। बुआ रामेश्वरी से वही नृत्य संस्कार एकता मिश्रा ने भी पाए। एकता अपनी बुआ के साथ बिंदादीन ड्योढ़ी में रहकर नृत्य साधना कर रही हैं। एकता कहती हैं, मेरे लिए महाराज जी के बारे में कुछ कहना मानो सूरज को दीया दिखाने जैसा ही है। मैंने अपनी पहली गुरु मेरी बुआ रामेश्वरी देवी और गुरु स्व. पंडित अर्जुन मिश्रा और पंडित अनुज मिश्रा से महाराज जी के बारे में काफी कुछ जाना। महाराज जी बहुत ही सुंदर, ठहराव के साथ भावपूर्ण नृत्य करते थे। बंदिशें, टुकड़े, परन, ठुमरी, कवित्त बहुत ही मोहक अंदाज के साथ दिखाते थे। नृत्य के साथ उनकी पढ़न्त भी गायिकी सी लगती। उनका भाव पक्ष बेजोड़ था। हमने अपने गुरुजन से महाराज जी के बारे में जितना सुना, उसके अनुसार कथक में घुंघरू और घुंघरुओं की झंकार जैसे ही थे पंडित लच्छू महाराज।
अद्भुत होती थीं नृत्य नाटिकाएं
तब हम वहीं कचहरी रोड पर बिंदादीन ड्योढ़ी के पास ही रहते थे। बचपन से ही ड्योढ़ी पर आना-जाना था। महाराज जी को कई बार देखने का भी सौभाग्य मिला। माथे पर सुशोभित ओम का तिलक उनके व्यक्तित्व को और अद्भुत बनाता था। उस समय भातखंडे और कथक केंद्र अगल-बगल ही थे। हम भातखंडे में कथक सीखते थे और महाराज जी कथक केंद्र में सिखाते थे। वो अकसर हमारी कक्षा में भी आ जाया करते थे। महाराज जी के सानिध्य में उनके शिष्यों ने रवींद्रालय में चंद्रावली नृत्य नाटिका की मनमोहक प्रस्तुति दी थी। चंडालिका प्रस्तुति भी यादगार रही। हर कथक प्रशिक्षु इन प्रस्तुतियों को जरूर देखता। लच्छू महाराज से कभी सीधे तौर पर तो सीखने को नहीं मिला, पर अपने गुरु बिरजू महाराज जी और उनकी माता जी से लच्छू महाराज जी के बारे में बहुत कुछ जाना। लखनऊ कथक घराने की पहचान लास्य ही है और महाराज जी लास्य अंग के बादशाह थे।