राम मंदिर मुद्दे ने देश की राजनीतिक दशा और दिशा को बदलकर रख दिया: मीडिया न्यूज़

‘रामलला हम आएंगे-मंदिर वहीं बनाएंगे.’ बीजेपी के इस नारे पर अक्सर विपक्ष के तमाम नेता ‘मंदिर वहीं बनाएंगे, लेकिन तारीख नहीं बताएंगे’ कहते हुए सियासी तंज कसा करते थे. राम के मुद्दे पर किसी के बोल बदल गए थे तो किसी की सियासत. यह मुद्दा इस तरह बुझा लगने लगा था कि नाम पर 2 से 85 सांसद वाली पार्टी बनने के बाद बीजेपी भी एक समय सत्ता के लिए इससे अपना पिंड छुड़ाना चाहती थी और काफी हद तक इससे किनारा भी कर लिया था.

वक्त बदला और सियासत ने ऐसी करवट ली कि राममंदिर मुद्दा फिर चर्चा के केंद्र में आ गया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले बाद पांच अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूमि पूजन कर राम मंदिर निर्माण की विधिवत शुरुआत कर दी है. राम मंदिर के आगाज के साथ देश भर में लोगों ने दीप भी जलाए हैं और विपक्षी दल भी राम भक्ति के रंग में नजर आ रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राम मंदिर का मुद्दा सियासी तौर पर तुरुप के पत्ते में तब्दील हो पाएगा?

राम मंदिर मुद्दे ने देश की राजनीतिक दशा और दिशा को बदलकर रख दिया है. आरएसएस से लेकर विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी ने राम मंदिर के मुद्दे लेकर जन समर्थन जुटाने का ही नहीं बल्कि राजनीतिक एजेंडे के तौर पर भी इस्तेमाल किया. राम मंदिर का ही असर था कि 1989 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 85 सीटें जीतने में कामयाब रही. 90 के दौर में बीजेपी ने राम मंदिर मुद्दे को तेज और आक्रमक धार दी. इस आक्रामकता का नतीजा रहा कि 1992 में विवादित ढांचा विध्वंस कर दिया गया.

भारत ने जैसे-जैसे नई सदी में कदम रख रहा है अयोध्या चुनावी मुद्दे से बाहर होता चला गया. बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में राम मंदिर का उल्लेख किया है, लेकिन 2004, 2009, 2014 और 2019 के चुनाव अन्य मुद्दों पर लड़े गए हैं. 2004 में इंडिया शाइनिंग बनाम आम आदमी अभियान, 2009 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौता, 2014 में ‘पॉलिसी-पैरालिसिस’ और 2019 में सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा गया. राम मंदिर का मुद्दा धीरे-धीरे पीछे चला गया था. यह केवल समय की बात थी और अब वह समय जा चुका है. अयोध्या में 5 अगस्त 2020 को एक उत्सव के रूप में देखा गया. करीब तीन दशक के बाद पार्टी के समर्थकों का अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का सपना साकार हो रहा है.

उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्रा कहते हैं कि राम मंदिर मुद्दे के इर्द-गिर्द ही बीजेपी की सियासत सिमटी रही है. बीजेपी किसी भी मुद्दे का राजनीतिक इस्तेमाल करना भी बेहतर तरीके से जानती है. अब जब सैकड़ों साल के बाद राम मंदिर निर्माण का काम शुरू हो रहा है तो बीजेपी इसे राजनीति केंद्रित रखने की कोशिश करेगी. भूमि पूजन के कार्यक्रम के जरिए बीजेपी और आरएसएस ने देश में राममय का माहौल बनाने की पूरी कवायद की है, जो इस बात को दर्शाता है कि राम मंदिर मुद्दे पर अभी सियासत का चैप्टर खत्म नहीं हुआ है.

70 साल से एक मामला चल रहा था, जिसे पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर के बाद मंदिर बनने का रास्ता साफ हुआ. बीजेपी इसका सेहरा प्रधानमंत्री मोदी के सिर बांध रही है. श्री राम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट ने अयोध्या में मंदिर निर्माण का साढ़े तीन साल में हर हाल में बनाने का टारगेट रखा है. शुरुआती डेढ़ साल में मंदिर के भूमि तल पर निर्माण कार्य को पूरा करने का वक्त तय किया है. इसके बाद अगले दो सालों में ऊपरी दोनों तलों पर निर्माण कार्य को पूरा करने का टारगेट रखा है. इस तरह से साढ़े तीन साल में मंदिर के शिखर तक के काम को पूरा कर लेना है.

सुभाष मिश्रा कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ ने पिछले तीन सालों से अयोध्या को लेकर जिस तरह से संजीदगी दिखाई और अपनी छवि को हिंदुत्व के चेहरे के तौर पर उभारा है. इससे यह बात साफ है कि राम मंदिर निर्माण के माहौल को बीजेपी पूरी तरह से भुनाने की कोशिश करेगी. वहीं, विपक्षी नेता प्रियंका गांधी से लेकर अखिलेश यादव और मायावती जिस तरह भूमि पूजन के दौरान राम भक्ति में डूबे दिखे हैं. इससे भी यह लगता है कि आगामी उत्तर प्रदेश के 2022 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव में राम मंदिर का मुद्दा तुरुप का पत्ता साबित होगा.

वहीं, वरिष्ठ पत्रकार अशुतोष मानते हैं कि राम मंदिर मुद्दे का अब राजनीतिक महत्व नहीं रह गया है. 6 दिसंबर 1992 के बाद से राम मंदिर का मुद्दा चुनाव में वोट बटोरने का मुद्दा बनना बंद हो गया. बाबरी विध्वंस के बाद यूपी, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश की बीजेपी सरकार बर्खास्त कर दी गई थी. विध्वंस के करीब 6 महीने के बाद इन राज्यों में चुनाव हुए तो वहां जनता ने बीजेपी के खिलाफ वोट किया था. राम मंदिर मुद्दे का असर इतना ही होता तो बीजेपी इन राज्यों में सत्ता में वापसी करती, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. मंदिर के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट से फैसला आने बीजेपी ने झारखंड और दिल्ली चुनाव में इसका जमकर प्रचार किया, लेकिन नतीजे उनके खिलाफ रहे.

अशुतोष कहते हैं कि देश में पिछले 6 सालों में हिंदुत्व का प्रभाव बढ़ा है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन मौजूदा दौर में सिर्फ हिंदुत्व से सहारे चुनाव नहीं जीते जा सकते हैं. राम मंदिर लोगों के लिए एक भावनात्मक मुद्दा जरूर है, लेकिन मंदिर के नाम पर लोग वोट दें यह जरूरी नहीं है. यूपी का विधानसभा चुनाव में लोग मंदिर के बजाय योगी सरकार के परफॉर्मेंस को देखकर वोट करेंगे. हिंदुत्व के आकलन को ऐसे ही समझ सकते हैं कि बीजेपी और आरएसएस की हरसंभव कोशिश के बाद भी 2019 में देश में उन्हें 39 फीसदी वोट ही मिल सका है जबकि 61 फीसदी लोग आज भी उनके खिलाफ हैं.

वह कहते हैं कि कोराना काल में जिस तरीके से आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक चुनौती लोगों के सामने खड़ी हुई है. ऐसे में हिंदुत्वा का कार्ड बहुत ज्यादा चलने वाला नहीं है, क्योंकि धर्म को लेकर लोगों सोच बदली है. आने वाले चुनावों में जनता के लिए राम मंदिर से कहीं बढ़कर मुद्दा देश की अर्थव्यवस्था और लोगों रोजगार का होगा. इस दिशा में सरकार क्या करती है वो ज्यादा चुनावी असर डाल सकेगा.

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