देश में हाल ही में बलात्कार और हत्या की कई जघन्य घटनाएं सामने आई हैं. इसके साथ ही दोषियों को सज़ा देने की न्यायिक प्रक्रिया में देरी पर भी चर्चा शुरू हो गई है. 16 दिसंबर 2012 का दिल्ली गैंगरेप कांड भी चर्चा में आ गया है. लोग सवाल कर रहे हैं कि आखिर सात साल बाद भी दिल्ली के दरिंदे फांसी से कैसे बचे हुए हैं?

इसमें कोई शक नहीं कि शुरू में तो निचली अदालत में ‘निर्भया’ कांड का मुकदमा फास्ट ट्रैक तरीके से चला. साल भर के भीतर फैसला आ गया. लेकिन बाद में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपील और पुनर्विचार याचिका में काफी समय लग गया.
अब दोषियों की दया याचिका राष्ट्रपति के पास लंबित है. तमाम कानूनी विकल्पों के इस्तेमाल के बाद दया याचिका फांसी से बचने का आखिरी ज़रिया है. हम जान लेते हैं कि किस प्रावधान के तहत दाखिल होती है दया याचिका और क्या इसके बाद भी दोषियों के सामने कोई रास्ता रह जाता है
अमेरिका, यूनाइटेड किंग्डम, कनाडा जैसे विकसित देशों की तरह भारत में भी दया याचिका का प्रावधान है. संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 में फांसी की सजा पाने वाले दोषियों को राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास दया याचिका भेजने का अधिकार दिया गया है.
यह व्यवस्था एक तरह से पूरी कानूनी प्रक्रिया में मानवीय पहलू जोड़ती है क्योंकि दया याचिका का निपटारा करते वक्त राष्ट्रपति या राज्यपाल कानूनी पहलू से ज्यादा मामले की दूसरे बिंदुओं पर ध्यान देते हैं.
यहां यह समझना जरूरी है कि संविधान के ऊपर लिखे दोनों अनुच्छेद CrPC के सेक्शन 432 और 433 का ही विस्तार हैं. यह दोनों धाराएं सरकार को यह शक्ति देती है कि वह किसी दोषी की सजा माफ कर सके या उसे कम कर सके. राष्ट्रपति या राज्यपाल दया याचिका पर जो फैसला लेते हैं वह सरकार की सलाह पर ही लिया जाता है.
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