एक तरफ दुनिया की आंखें चौंधिया देने वाले भव्य और दिव्य कुंभ की रंगत। श्रद्धालुओं का तांता, संतों का जमघट। कोई मनौती की गठरी लादे संगम से संगत चाहता है, किसी को उतारना है गंगा मैया का कर्ज। मंगलकामना के ज्वार की थाह नहीं लेकिन, इनमें बेहद खास है कल्पवास। इस आस के साथ कि मन में उमड़ने घुमड़ने वाली कल्पना से किसी तरह छुटकारा मिल जाए।
श्रद्धालुओं की यह अनूठी दुनिया इस दफा भी आबाद हो चुकी है लेकिन मन पर नियंत्रण की राह दिखाने वाला दुनिया का सबसे पुराना वृक्ष ही अकेला खड़ा है, बिल्कुल उदास। कुंभ के कोलाहल से दूर शास्त्रों में बेहद पवित्र और दिव्य माना जाने वाला यह कल्पवृक्ष गंगा पार झूंसी इलाके में है। एक पहाड़ीनुमा स्थान पर।
उम्र का असर साफ झलकता है। हरियाली की रंगत गायब है। छाल जाने कब साथ छोड़ गई, पता नहीं। हाथ-पांव (तने) भी झूल गए हैं। आसपास दूसरे धर्म के लोग बसे हैं। इंसानी हठ के चलते विवाद का साया भी घेर चुका है। श्रद्धालुओं के नाम पर बलिया के बेहद साधारण वेशधारी सदानंद बाबा पन्नी की झोपड़ी डाले अपनी धुन में मस्त हैं। कल्पवृक्ष की छांव में खाना, रहना, सोना और भजन गाकर मगन हैं। चूंकि, हर कुंभ में कल्पवास को आते हैं, इसलिए पौराणिक कथाओं में पूज्य कल्पवृक्ष के हाल पर व्यथित हैं।
परदेसी होने के बाद भी वृक्ष की देखभाल को दिनचर्या में शामिल कर लिया है। यहां तक कि आसपास के असमाजिक तत्वों से कल्पवास भर अकेले जूझते रहते हैं। बातचीत में स्वामी सदानंद भव्य कुंभ की ओर इशारा कर तंज कसते हैं-इससे पुण्य नहीं मिलेगा। पहले कल्पवास का मतलब ही कल्पवृक्ष के आसपास प्रवास था। आज वही कल्पवृक्ष अकेला है, चिता की बात है…। वक्त के साथ जंगल भले मिट गए लेकिन, बचे-खुचे पौराणिक महत्व का कल्पवृक्ष तो बच जाए। दुनिया में दो चार ही हैं।
त्रिवेणी किनारे कल्पवृक्ष एक, दावेदार दो
कल्पवृक्ष की टीस सिर्फ भक्तों की ओर से बरती जा रही उपेक्षा ही नहीं, मोह-माया, धर्मांधता की होड़ में इस पर मंडरा रहा विवादों का साया भी है। आसपास बसी दूसरे धर्मावलंबियों की आबादी वृक्ष पर अपना दावा ठोक रही है। इसके पीछे बाकायदा कहानी भी गढ़ दी गई है। यह कि इस स्थान पर कबीरदास जी आए थे। उन्होंने दातून करने के बाद डंडी यहीं लगा दी। उसके बाद यह पेड़ उगा।
इतना ही नहीं, पास मौजूद धार्मिंक स्थल पर आने वाले तमाम लोगों को कल्पवृक्ष की डंडी, पत्ती, जड़ का हिस्सा निकालकर इलाज के लिए भी बांटा जाता है। उनकी मान्यता है, कई बीमारियां इससे ठीक हो जाती हैं। लगातार नोचने और खोदने से शेष रह गए वृक्ष में कई गड्ढे बन गए हैं। कुंभ के दौरान मेला प्रशासन ने चबूतरा बनवाकर हाथ खींच लिए।
संगम तीरे का कल्पवास
वर्तमान में कुंभ के दौरान संगम तट पर टेंटों की बसी नगरी में निवास ही कल्पवास है। हालांकि, पौराणिक मान्यता के मुताबिक, सांसारिक जीवन के दौरान मन में उमड़ने वाली कल्पनाओं, इच्छाओं पर नियंत्रण के लिए जंगल में कल्पवृक्ष के नजदीक वास करना है। यह वेदकालीन अरण्य संस्कृति की देन है। यह विधान हजारों वर्षों से चला आ रहा है।
बताते हैं, जब तीर्थराज प्रयाग में कोई शहर नहीं था। यह ऋषियों की तपोभूमि थी। त्रिवेणी तीरे घना जंगल था। उसी में ऋषियों ने गृहस्थों को अल्पकाल के लिए कल्पवास की व्यवस्था की। मान्यता है कि इस काल में जो भी मनौती लेकर आता है, उसे एक कुटिया जैसी जगह में रहना होता है। दिन में एक बार भोजन, मानसिक नियंत्रण, तप, होम, दान, अहिसा और भक्तिभाव को आत्मसात करना होता है। कल्पवासियों के लिए मोक्ष तय माना जाता है।