सूर्य भगवान का मकर राशि में प्रवेश अध्यात्म, खगोल विज्ञान और ज्योतिष शास्त्र के स्तरों पर अतिविशिष्ट पर्व माना जाता है। वर्ष की अन्य तिथियों व पर्वों में शायद ही ऐसी तिथि होगी जो सभी स्तर पर पूजनीय हो। तिथियों का क्षय हो, तिथियां घट-बढ़ जाएं, अधिक मास का पवित्र महीना आ जाए परंतु मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही आती है।
इसी दिन से सूर्यदेव का उत्तरायण में प्रवेश माना जाता है। खगोल विज्ञान के अनुसार उत्तरायण सूर्य की छः मास की उस अवधि को कहते हैं जिसमें सूर्य की गति उत्तर अर्थात कर्क रेखा की ओर होती है। यानी मकर रेखा से उत्तर की ओर सूर्य भ्रमण करता है। छः माह बाद दक्षिणायन में सूर्य की गति कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर होती है।
सूर्य आध्यात्मिक स्तर पर आत्माकारक, आत्मचिंतन एवं आत्मोन्नाति करने वाला ग्रह माना जाता है। पूरा सौरमंडल सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करता है। बिना सूर्य सौरमंडल की कल्पना करना असंभव है। सूर्य आरोग्य एवं चेतनाशक्ति के देवता हैं। सूर्य ही आयुष्मान योग देने में समर्थ है। चंद्रमा की तरह सूर्य एक राशि में सवा दो दिन नहीं रहते।
वे प्रत्येक नक्षत्र में लगभग 14 दिन से थोड़े से कम समय के लिए भ्रमण करते हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मकर राशि में जब सूर्य का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में प्रवेश होता है, उन दिनों जो सूर्य की ऊर्जा निकलती है, वह अध्यात्म से अपेक्षाकृत अधिक सराबोर रहती है। उत्तराषाढ़ा ज्योतिष के कुल 27 नक्षत्रों में से इक्कीसवां नक्षत्र है। उत्तराषाढ़ा स्वयं सूर्य का नक्षत्र है क्योंकि वे स्वयं इस नक्षत्र के स्वामी हैं।
इन्हीं कारणों से मकर संक्रांति के दिन स्नान, ध्यान, पूजा-पाठ, देव-स्मरण, मंत्रोच्चारण, मंत्र सिद्धि का महत्व बताया गया है। मंत्रोच्चारण के साथ पवित्र नदियों और सरोवरों में स्नान को विशेष पावन माना गया है। आज से नहीं, कम से कम महाभारत काल से तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उत्तरायण सूर्य के दर्शन को मोक्षदायी माना गया है।
शास्त्रों और पुराणों में प्रामाणिक संदर्भ हैं कि श्री हरि, भगवान विष्णु स्वयं ही सूर्य का रूप धारणकर ब्रह्मांड को आलोकित किए हुए हैं। महाभारत के विशिष्ट पात्र भीष्म पितामह शर-शय्या पर लेटकर भी मृत्यु का वरण करने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। भारतीय संस्कृति में उत्तरायण के सूर्य के इससे बड़े महत्व का उदाहरण और क्या हो सकता है।
वैदिक ऋचाओं और मंत्रों के सतत उच्चारण से हमारा शारीरिक तंत्र झंकृत हो उठता है और शनैः-शनैः आध्यात्मिक ऊर्जा संचित होती रहती है जो सद्गुणों के विकास और फैलाव में कारगर सिद्ध होती है। ऋषि-मुनियों के पास यही तो ऊर्जा रहती है।
रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को क्या दिया था? कोई भौतिक वस्तु नहीं दी थी। इस संकलित ऊर्जा से, स्पर्श मात्र से परमहंस ने विवेकानंद को सराबोर कर दिया था और नास्तिक नरेन्द्र आस्तिक विवेकानंद में परिवर्तित हो गए थे।
सूर्योपासना प्रारब्ध और पुरुषार्थ का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करती है। भाग्य, जिसे हम अंधविश्वास की श्रेणी में लेते हैं, असल में प्रारब्ध का ही फल है। प्रारब्ध भी कुछ नहीं है, पिछले जन्मों के अच्छे-बुरे कर्मों का संचय है जो जीवात्मा के धरती पर भ्रमण के दौरान काया धारण करते समय सामने आ जाता है।
सूर्य उपासक प्रारब्ध काटता है और जब जीव परमात्मा की स्वरूप शक्ति का साक्षात्कार कर लेता है तब सभी कर्म व उसके फल समाप्त हो जाते हैं और उच्च लोकगमन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
मंत्रों के उच्चारण की शुद्धता से शक्ति पैदा होती है, इसे अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं। तुलसीदासजी ने भी कहा है कि ‘राम अतर्क्य बुद्धि, मन, बानी’। तर्क जड़ है इसलिए उसके जरिए चैतन्य का चिंतन असंभव है।
इसलिए सूर्य का मकर राशि और विशेष रूप से उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में भ्रमण पुण्यों की राशि को प्रदान करने वाला है। आत्मशुद्धि के लिए यह समय अनुशंसित किया गया है।
कोई आश्चर्य नहीं कि मकर संक्रांति को स्नान के लिए गंगा और गंगा सागर में जन आस्था का सैलाब उमड़ पड़ता है। विश्व चकित है इस आस्था के पर्व से। इस पर्व में अध्यात्म, खगोल विज्ञान और ज्योतिष शास्त्र तीनों की ही विशेषताएं समाविष्ट हैं, इसलिए यह पर्वों का पर्व कहा जा सकता है।