भारतीय संस्कृति को त्यौहारों से समृद्ध संस्कृति कहा जाता है। प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर सनातन संस्कृति में पर्वों को निर्धारित किया है। जिंदगी के दुख-सुख और धूप छांव का भी इनमें समावेश किया गया है। हिंदू पंचांग में ऋतु और तिथि की वैज्ञानिक गणना कर पर्वों का निर्धारण किया गया है। हिंदू पंचांग के अनुसार एक मास में 30 दिन निर्धारित किए गए हैं। इसमें शुक्ल पक्ष में 15 और कृष्ण पक्ष में 15 दिन होते हैं। शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि पूर्णिमा और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि अमावस्या होती है।
शास्त्रों में चंद्रमा की 16 कलाओं को ‘अमा’ कहा जाता है. चंद्रमंडल की ‘अमा’ नाम की महाकला में 16 कलाओं की शक्ति शामिल है। यानी जिसका क्षय और उदय नहीं होता है उसको अमावस्या कहा जाता है।
पूर्णिमा पर्व पर जहां चंद्रमा की चांदनी चारों और बिखरी हुई होती है, वहीं अमावस्या के अवसर पर चारों और अंधेरे का साम्राज्य छाया रहता है। शास्त्रों में इन दोनों पक्षों को देव और दानव से जोड़ा है। शुक्ल पक्ष और उत्तरायण को जहां देव आत्माएं सक्रिय होती है वहीं कृष्ण पक्ष और दक्षिणायण में दैत्य आत्माएं सक्रिय होती है। बुरी आत्माओं के सक्रिय होने से इसका असर मानव मन और मस्तिष्क पर पड़ता है। अमावस्या के अवसर पर भूत, प्रेत, पिशाच, पितृ और निशाचर जन्तु ज्यादा सक्रिय होते हैं।
अमावस्या के दिन चंद्रमा आसमान में दिखाई नहीं देता है। चंद्रमा को मन का स्वामी माना जाता है। इसलिए अमावस्या के अवसर पर कुछ लोगों को मन बड़ा चंचल हो जाता है साथ ही शारीरिक हलचल भी काफी बड़ जाती है। जो व्यक्ति निराशा में डूबा हुआ नकारात्मक विचारों वाला होता है उसके ऊपर अमावस्या तिथि का गहरा असर पड़ता है और कई बार ऐसे लोगों को नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में भी ले लेती है।
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अमावस्या का एक वैज्ञानिक पक्ष भी होता है जिसके अनुसार अमावस्या के मौके पर बाह्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय होती है। विज्ञान के अनुसार प्रेत शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है और पितृ शरीर में इसके उलट 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। यानी ईथरिक एटम के सघन होने पर प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और एस्ट्रल एटम सघन होने पर पितरों का भी छायाचित्र लिया जा सकता है।