शनिवार की सुबह आसमान नीलाभ हुआ और फिर अचानक अंधेरा छा गया. समुद्र और आकाश के संधि बिंदु पर एक शून्य पसर गया जिसमें डूब गए पानी से भरे कितने ही बादल. सुबह साढ़े सात बजे चेन्नई के अपोलो अस्पताल में नीलाभ मिश्र ने अंतिम सांस ली और यात्रा पर चल दिए. चुप रहना नीलाभ का स्वभाव था. वो किनारे जैसे शोर करते हुए कभी नहीं थे. अतल सागर जैसे शांत थे और शायद इसीलिए उन्हें समुद्र बहुत आकर्षित करता था. जब फरवरी की शुरुआत में पता लगा कि नीलाभ चेन्नई जा रहे हैं, तभी से एक शंका मन में घर कर गई थी. तिनका तिनके से मिला, तिन का तिन के पास. फिर जब इस विदा से पहले उन्हें देखने गया तो साफ हो गया कि चमत्कार ही उन्हें वापस ला सकता है. लेकिन नीलाभ चमत्कार से जीत गए. नीलाभ को इतनी जल्दी जाना तो नहीं था. हम सभी ऐसा ही मानते हैं. लेकिन नीलाभ जितना जिए, पूरा जिए. भरपूर जीवन से भरा-पूरा जीवन. उन्हें याद करते लगता है कि जाने से ज़्यादा अहम है जीना और जीना किसे कहते हैं, यह नीलाभ का जीवन सहज सिखाता है. छल-कपट से रहित, आडंबरों और भ्रष्टाचार से मुक्त, इंसानियत, भाईचारे में यकीन को जीते हुए, जन-पक्षधरता के लिए बेबाक सवाल उठाते और लड़ते हुए, अपने अंदर के पत्रकार को बखूबी निभाते हुए, प्रेम और आदर को जीवन का रास्ता बनाए नीलाभ जिए. कम बोलना, ज़्यादा सुनना, बोलते समय भाषा और सहजता का सदा ध्यान रखना, आवेश से दूर शांति देती आवाज़ से लोगों से मुखातिब होना नीलाभ की पहचान थी.
नीलाभ से पहली मुलाकात जयपुर में हुई. जन-संगठनों के प्रदर्शनों की भीड़ में नीलाभ किसी कोने में एक चातक की तरह सबकुछ अपनी आंखों से देखते मिल जाते थे. उनके पास होना तब हम जैसे नए युवा पत्रकारों को ऊर्जा से भर देता था. हर मुलाकात कुछ सिखाकर जाती थी. हर बार कुछ नया दृष्टिकोण, कोई नया पहलू, कुछ नए शब्द और शैली सीखने को मिल जाते थे. धीरे-धीरे बोलने वाला एक भारी सा शरीर लदे हुए आम के गाछ की तरह महसूस होता था जिसके पास छांव भी थी और फल भी.
फिर वो दिल्ली आ गए. यहां उन्होंने आउटलुक हिंदी में काम करना प्रारंभ किया. पहले आनंदलोक और फिर शाहपुर जाट में उनका निवास रहा. यहीं मैं भी अरविंद केजरीवाल से अपने मोहभंग के बाद मुख्यधारा की पत्रकारिता में लौटने के निर्णय के साथ उनके पास आकर रहने लगा. न कभी नीलाभ से मैंने नौकरी मांगी, न कभी उन्होंने दी. यह शायद हम दोनों के बीच का अघोषित समझौता था. उनके साथ काम करना और उनके लिए काम करना वाली स्थिति के बीच हम अपने अपने संस्थानों की ज़िम्मेदारी निभाते रहे.
नीलाभ और मुझे लेकर कई बार यह भी प्रचार किया गया कि यह तो नीलाभ का छोटा भाई है. बेशक, हम घर के ही थे. दोनों का घर गंगा. मैं भी गंगा किनारे पैदा हुआ और वो भी. तो क्या कि मेरी गंगा अवध में थी और उनकी मगध में. थी तो गंगा ही. कितने ही वर्षों तक नीलाभ मुझे यह बताकर हंसते रहते थे कि अमुक व्यक्ति कह रहा था कि मैं तुम्हारा भाई हूं. मैं गर्व से कहता था, झूठ क्या कह रहा है वह. जब नीलाभ के दाह के लिए चेन्नई पहुंचा तो अपने साथ शीशी में आब-ए-जमजम और गंगाजल भी मिलाकर ले गया. नीलाभ के दाह से पहले उनके हक की गंगा से उन्हें मिलवा दिया. बाकी कुछ अस्थियां साथ ले आया हूं. गढ़मुक्तेश्वर में गंगा किनारे उनकी और मेरी सबसे प्रिय दुकान पर कद्दू-पूड़ी खाकर उन्हें गंगा की गोद में खेलने को छोड़ आउंगा.
हम दोनों की आत्मीयता के जो सोपान थे, वेb हैं भोजन, हिंदी भाषा, पत्रकारिता, संगीत, साहित्य, कला-संस्कृति, सिनेमा और जन-सरोकार. भोजन सबसे पहले लिखा है. क्योंकि सबसे अहम भी यही था. दोनों को भोजन के सुस्वादु और सुरुचिपूर्ण होने की ज़िद थी. दोनों भोजन पर घंटों बात कर सकते थे, कभी भी खा सकते थे और किसी भी प्रकार के भोजन पर अधिकार पूर्वक कुछ न कुछ बता सकते थे. भोजन की सामाजिक पृष्ठभूमि और राजनीति से लेकर उसके प्रकार, प्रवृत्ति और पकाने पर हमारा विशेष ध्यान रहता. अन्नपूर्णा से मिस्टी दोई वो लाते थे, घर पर जगन्नाथी दालमा मैं पकाता था. भात, रायता और कलौंजी के साथ अपने दौर चलते थे. शनिवार से एक ही बात खाए जा रही है. भोजन का प्रेमी व्यक्ति तीन सप्ताह तक तरह-तरह की दवाइयां ग्रहण करता रसायनों से भरा शरीर बन गया… काश नीलाभ जाने से पहले एक बार उठ जाते और मैं उनकी पसंद का सबकुछ बनाकर उन्हें खिला पाता.
नीलाभ को कभी नाराज़ नहीं देखा. उन्हें कोई जल्दी नहीं थी. न अधीरता, न आकुलता. सागर जैसे शांत. आंखें बच्चों जैसी चपलता से भरी, हाथ हमेशा पितृत्व का अहसास दिलाते हुए. सानिध्य ऐसा कि कोई चिंता करने की आवश्यकता न रह जाए. घंटों हम लोगों की भड़ास सुनने के बाद धीरे से बुदबुदाकर शांत करना उनका सहज व्यवहार था. इन सबके बीच जो एक बात अडिग थी वो था काम. काम समय पर और सही ढंग से. खबर को कैसे देखें, कैसे खोलें, कैसे लिखें से लेकर खबर की भाषा, प्रभाव और गठन पर वो द्रोणाचार्य से भी कठोर थे. अनुवाद ऐसा कि लगे हिंदी में ही तो लिखा गया था, बाद में अंग्रेज़ी किया गया होगा. और व्यक्ति से ज़्यादा खबर की श्रेष्ठता. आज इस बात को कहने में हिचक नहीं है कि कितने ही संस्थानों में काम करते हुए उनके लिए लिखता रहा और वो तरह-तरह के नामों से उसे छापते रहे.
नीलाभ ने एक बात बार-बार सिखाई. खबर की प्रधानता. उसे रोको मत और न किसी को रोकने दो. रोकता है तो लड़ो. नहीं छप सकती तो दूसरों को दो. नाम छपना उनके मुताबिक गौड़ था. वो कहते थे कि यह तो ज़िम्मेदारी तय करने के लिए होता है. बाकी मूल बात ख़बर है. वो छपनी चाहिए. मेरे तुम्हारे यहां नहीं तो किसी और जगह सही. नीलाभ उन बिरले लोगों में थे जो अपनी राजनीति और चेतना का इस्तेमाल खबर को खंगालने के लिए करते थे. न कि उसे प्रभावित करने और बदलने के लिए. वो खुद को अनासक्त रखकर कर्म में लगने वाले लोगों में थे.
नीलाभ वो व्यक्ति हैं जिन्होंने मुझे सबसे पहले मोज़ार्ट और बीथोवन से मिलवाया. कुमार गंधर्व और सुब्बलक्ष्मी हम दोनों को प्रिय थे. फलों में आम, रसों में गन्ना, खाने में मीठा और पेय में चाय नीलाभ को परमप्रिय थे. बहुत कम लोग जानते हैं कि ठंडई भी उनका प्रिय पेय था और इसलिए हम लोग अवसर मिलने पर ठंडई जमा लेते थे. यह मिठास जीवनभर उनके व्यक्तित्व में रही. उनके शत्रु भी उनसे यह शिकायत नहीं कर सकते थे कि उन्होंने किसी को ठेस पहुंचाई हो. वो तथ्यों के साथ लड़ते थे लेकिन चेहरा और भाषा सहजता और मुस्कान से भरे रहते थे, प्रतिक्रियावाद से मुक्त.
सबसे विलक्षण बात जो उनके व्यक्तित्व में रही, वो यह थी कि उनके पास किसी भी विषय के लिए समग्रता थी. विषयों की क्षेत्रीयता के आधार पर व्याख्या, उनके इतिहास के अनुसार उनका मूल्यांकन, साहित्य और संगीत में उनसे जुड़े बिंबों के आधार पर विषय का विस्तार और समयानुरूप उस विषय को पर्त दर पर्त खोल पाने की उनकी क्षमता मिलकर एक समग्र विचार बनाते थे जो नीलाभ के अलावा बाकी लोगों में देखने को नहीं मिलता.
अस्पताल और आईसीयू नीलाभ को कतई पसंद नहीं थे. अस्पताल बहुत मुश्किल से जाते थे. चेन्नई में भी वो लगातार लड़ते रहे कि उन्हें आईसीयू में न रखा जाए. शनिवार की सुबह कविता श्रीवास्तव से मिले तो उनके मुख से निकला, सॉरी आनंद, हम नीलाभ को नहीं बचा सके. मैंने समझाया, ऐसा नहीं है. नीलाभ को आईसीयू पसंद नहीं आया. वो उससे बाहर निकल आए. दरअसल, नीलाभ की सहजता में जो चीज़ उनकी ताकत थी, वो थी उनकी ज़िद. जो पसंद है वो पसंद है. जो चाहिए वो चाहिए और जो नहीं पसंद वो उनके हिस्से रह ही नहीं सकता. वो चुपचाप चरैवेति का श्लोक बुदबुदाकर आगे बढ़ जाते थे. ऐसे ही वो आगे बढ़ गए पटना के नवभारत टाइम्स से. ऐसे ही आगे चल पड़े आउटलुक के संपादक पद से. राजनीतिक दबावों और तुष्टिकरण के प्रस्तावों को नीलाभ इसी मंत्र से नकारते गए. यही मंत्र वो चेतनाशून्य होने से पहले दोहराते रहे और फिर एक और यात्रा पर निकल गए.
नीलाभ दरअसल उस आईसीयू से बुरी तरह ऊब गए थे. खाली समय में किताब पढ़ना उनकी आदत था. लेकिन खाली समय आजकल किसके पास होता है. इसलिए इसे यूं कहना चाहिए कि किताबों के लिए सबसे व्यस्ततम दिनों में भी वो खाली समय निकाल लेते थे. सोने से पहले पढ़ना उनकी रोज़ की आदत थी. कुर्सी में धंसे नीलाभ किताबों के पन्ने प्रेमिका के सिर के बालों की तरह सहलाते हुए वर्क दर वर्क पलटते जाते थे. और अध्ययन के विषय विशाल थे. अंग्रेज़ी साहित्य का यह श्रेष्ठ विद्यार्थी अपने हिंदी प्रेम में हिंदी पत्रकारिता को समर्पित हो गया. लेकिन बहुत कम लोगों को अंग्रेज़ी के साहित्य पर भी उनके जैसी पकड़ थी.
सांसों का अनुशासन तोड़ चुके नीलाभ के शरीर में लगभग सभी आंतरिक अंग खराब हो चुके थे. लीवर, किडनी और मस्तिष्क पूरी तरह से बंद थे. नीलाभ को समुद्र बुला रहा था. वो नीलाभ से मिलने आगे बढ़ चुका था उस अनंत संधि बिंदु की ओर. नीलाभ दोस्तों के हठ को कुछ दिनों तक सहने के बाद उसी क्षितिज की ओर निकल पड़े. उनकी ज़िद के आगे साथियों के सारे प्रयास छोटे हो गए. विश्व की सबसे बेहतर मशीनें और मित्रों के आग्रह भी उन्हें उस आईसीयू में रोक नहीं सके. जाने के बाद नीलाभ किसी के लिए अपनी दो आंखें दे गए और करोड़ों लोगों के लिए एक दृष्टि. वो दृष्टि ही नीलाभ का हम सब पर उधार है अब. उसे निभाना ही सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी.
हमने उन्हें आईसीयू में कबीर के भजन सुनाए. चेन्नई में विद्युत शवदाह गृह पहुंचे तो महिलाओं ने कंधा दिया. कोई पूजा अर्चना नहीं. वीरवनक्कम और इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे गूंजते रहे. मैं पूरी ताकत से कबीर के भजन उन्हें सुनाता रहा. कविताएं पढ़ी जाती रहीं. और नीलाभ इन सबके दौरान धूम बनकर व्योम में छाते गए.
जब याद करता हूं कि हमारे जीवन में कौन से वे लोग हैं जो पत्रकारिता के लिए मील का पत्थर बने तो अजीत भट्टाचार्य, गिरीश निकम, आलोक तोमर, प्रद्युत लाल जैसे नाम तुरंत ध्यान आते हैं. लेकिन जिनमें समग्रता देखी, जिनके जीवन को उनकी व्यवसायिक पहचान से भी उंचा देखा, जिनको देखकर लगा कि वो पत्रकार नहीं भी होते तो कितने अहम होते, उस श्रेणी में सारी खोजबीन जिन दो नामों पर रुक जाती है वे हैं प्रभाष जोशी और नीलाभ मिश्र.
प्रभाष जी नीलाभ से कहीं ज़्यादा जी कर गए. प्रसार के हिसाब से कहीं ज़्यादा करके भी. लेकिन प्रभाष जी के जाने के बाद घूम-फिरकर एक ही ठौर था. वो ठौर भी चला गया. नीलाभ गए. उसी रात दुबई में अभिनेत्री श्रीदेवी की मृत्यु की खबर आई. पूरा मीडिया उसे कवर करने में लग गया. पत्रकारों के भी सोशल प्रोफाइल इसी खबर से अटे पड़े थे. रविवार की सुबह तक यह ज्वार कई बड़ी राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं को निगल चुका था. मैं असहाय सा देख रहा था खाली डिब्बों से बजते टीवी सेट और अपने असल नुकसान को न देख पा रहे पत्रकारों की नस्ल. शायद यही हमारे समय की पत्रकारिता का सच है. शायद इसलिए क्योंकि नीलाभ जैसे कुछ लोग इसे झुठलाने के लिए मौजूद रहे. लेकिन ये संख्या लगातार कम हो रही है. और पेशा इसके सापेक्ष तेज़ी से पागलपन बनता जा रहा है.
इस अंधे समय और दृष्टिहीन दौड़ों में नीलाभ के बिना होना सचमुच कठिन और चुनौतीपूर्ण है.