विशाल प्राकृतिक संपदा से सरसब्ज हिमालयी पर्वतमालाओं की विशिष्ट भौगोलिक प्रकृति विकास के प्रचलित मॉडल से समन्वय नहीं बिठा पा रही है। वन, जल, नदियों, जैव विविधता के विपुल भंडार के बाद भी हिमालयी इलाकों को खुद की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए न पानी है और वनों पर अधिकार। खेती के आधुनिक तौर-तरीकों ने देश की तस्वीर बदल दी है, किन्तु हिमालय में पुरानी और परंपरागत खेती खुशहाल जीवन की बात तो दूर, दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम करने में भी पिछड़ गई है।

विकास के आवश्यक ढांचागत सुविधाओं के विस्तार के कदमों को पर्यावरणीय बंदिशों ने बेड़ियां डाल दी है। जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और आजीविका के उपलब्ध संसाधनों के सामने आंखें दिखा रहा है। वनों और वन्यजीवों को बचाने के अंतरराष्ट्रीय अभियान में हिमालयी मानव के अस्तित्व पर नया संकट खड़ा हो गया है।
देश स्वतंत्र होने के बाद से आज तक हुए नीति नियोजन ने यह भी साबित कर दिया कि हिमालयी चुनौती से निपटने को खुद हिमालयी प्रदेशों को एकजुट होकर कार्य करना होगा। रविवार को मसूरी में 11 हिमालयी राज्य इसी उद्देश्य से साझा मंच पर एकसाथ आ रहे हैं। 15वें वित्त आयोग और नीति आयोग सहित देश के नीति नियंताओं की उपस्थिति में हो रहे हिमालयन कॉन्क्लेव के संयुक्त मसौदे को तैयार किया जाएगा।
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